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शिक्षा की समस्याएं
२३ दूसरी है निवृत्तिवाद। प्रवृत्ति और निवृत्ति-यह वस्तु तत्त्व का स्वाभाविक पक्ष था। इसका अनुभव किया गया था, किन्तु अनुभव की बात जब बुद्धि के स्तर पर चर्चित होती है तब उसकी सूक्ष्मता समाप्त हो जाती है, केवल स्थूलता बची रहती है। सारे दर्शन-जगत् में यही हुआ है। स्थूल तत्त्व उभर कर सामने आ गए और जो रहस्य थे, सूक्ष्मताएं थीं, वे नीचे ही छिपी रह गईं। प्रवृत्ति और निवृत्ति भी विवाद का विषय बन गया, जबकि इनमें विवाद जैसा कुछ है नहीं। यह जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है, न केवल मानवीय जीवन की, परन्तु सम्पूर्ण प्राणी जगत् की, चेतन जगत् की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इतना ही नहीं, यह जड़ जगत् की भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। प्रत्येक पदार्थ में, जड़ हो या चेतन, दो पक्ष होते हैं-पोजिटिव और नेगेटिव, विधायक और निषेधक। कोई भी शक्ति ऐसी नहीं होती, जिसमें ये दोनों न हों। विधायक पक्ष है हमारी प्रवृत्ति और निषेधक पक्ष है हमारी निवृत्ति। संभावनाओं का द्वार : सन्तुलन
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का संतुलन अपेक्षित है। जहां कहीं यह संतुलन बिगड़ता है, वहां बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है। कोरी प्रवृत्ति पागलपन की ओर ले जाती है। कोरा काम आदमी को निकम्मा बना देता है। अनेक लोग प्रवृत्ति में बहुत विश्वास करते हैं। वे प्रवृत्ति करते-करते अपनी शक्ति को इतना खर्च कर डालते हैं कि अतिप्रवृत्ति उनके लिए वरदान नहीं, अभिशाप बन जाती है। कोरी निवृत्ति भी निकम्मापन लाती है। जब शरीर है तो निवृत्ति से काम नहीं चल सकता। सक्रियता और निष्क्रियता, चिन्तन और अचिन्तन, विचार और निर्विचार, विकल्प और निर्विकल्प, स्मृति
और विस्मृति, भाषा और अभाषा-इन सबका संतुलन अपेक्षित है। यह प्रयत्न विकास की प्रतिगामी दिशा में जाने का प्रयत्न नहीं है। हमारा सारा प्रयत्न विकास की अग्रिम मंजिल तक जाने का प्रयत्न है। मन मिला, भाषा मिली
और हमने विकास की सीमा यहीं तक मान ली। यह विकास की अन्तिम सीमा नहीं है। इससे आगे भी विकास की बहुत सम्भावना है, परंतु उस संभावना का द्वार तब तक नहीं खुलता जब तक हम भाषा और मन को समाप्त करने की स्थिति तक नहीं पहुंच जाते। भाषा का न होना, चिन्तन का न होना अविकसित दशा है, किन्तु भाषा और चिन्तन के होने पर भी उनका प्रयोग न करना विकास की दिशा में पहला प्रस्थान है। जो व्यक्ति अपनी चेतना के नए आयामों
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