________________
१५
जीवन विज्ञान : आधार और प्रक्रिया करना है। अनावश्यक स्मृतियां बीच में आने लग जाती हैं। मन बाधा डालने लग जाता है। जो काम पांच मिनट में होना चाहिए, वह पचास मिनट में भी नहीं हो सकता और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि काम पूरा कर ही नहीं पाते। स्मृतियों का तार इस प्रकार उघड़ता है कि एक के बाद एक स्मृति का चक्र आता है, वह अनंत बन जाता है और मूल बात वहीं की वहीं रह जाती है। स्मति हमारे कार्य में सहयोग देती है, बाधा भी देती है। कल्पना का बहुत सहयोग है तो कल्पना बहुत बाधा भी देती है। यदि कल्पना पर हमारा नियन्त्रण नहीं है तो कल्पना बहुत बाधक बन जाती है। कुछ लोग व्यर्थ की कल्पनाएं करते हैं। वे काल्पनिक जीवन जीते रहते हैं, यथार्थ के धरातल पर उनका पैर कभी टिकता ही नहीं। इससे जीवन में बाधा उपस्थित हो जाती है। चिंतन बहुत उपयोगी होता है तो चिंतन बहुत बाधा भी उपस्थित करता है। इतना चिंतन, इतना चिंतन कि क्रियान्विति का सारा रस ही चिंतन खा लेता है, क्रियान्विति को कभी मौका ही नहीं मिलता। चिंतन कभी टूटता ही नहीं, क्रियान्विति कैसे हो?
वाणी की बाधा को सब लोग जानते हैं। थोड़ा-सा अप्रिय शब्द निकला, परम मित्र शत्रु बन जाता है। मन की सारी क्रिया वाणी पर निर्भर है। स्मृति, कल्पना, चिंतन सब भाषा पर आधारित हैं। भाषा के बिना न स्मृति, न कल्पना
और न चिंतन। सब भाषा के आधार पर ही चलते हैं। वास्तव में स्वरयंत्र बहुत महत्वपूर्ण है। एक आदमी सो रहा है। सोते समय बोलता नहीं, किन्तु उसका स्वरयंत्र सक्रिय हो जाता है नींद में भी वह सक्रिय होता है। शब्दानुशासन, मन्त्रानुशासन और मनोनुशासन-इन तीनों में भाषा को द्विरूप माना है। एक है बहिर्जल्प और दूसरा है अन्तर्जल्प। एक, जो बाहर से बोलते हैं और एक, जो भीतर से बोलते हैं-बाहर से कुछ नहीं बोलते, किन्तु भीतर से स्वरयंत्र की सक्रियता बराबर बनी रहती है, बोलते चले जाते हैं। यह काम नींद में भी होता रहता है, सपने में भी होता रहता है। अन्तर्जल्प हमारा बन्द नहीं होता और इसीलिए बहुत सारे लोग अशब्द नींद नहीं ले पाते। उनकी नींद सशब्द होती है, स्वरयंत्र बराबर चलता रहता है।
भाषा जहां सहायक बनती है वहां भाषा बहुत बाधक भी बनती है। बहुत सारे मानसिक तनावों को पैदा करने में भाषा का, स्वरयंत्र का बड़ा योग रहता
जहां श्वास बहुत सहायक है, वहां श्वास बहुत बाधक भी बनता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org