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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग है । एक आदमी को उत्तेजना बहुत आती है। बहुत क्रोध, बहुत अहंकार, बहुत वासना, बहुत ईर्ष्या और बहुत घृणा आती है। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण है - श्वास । श्वास सधा हुआ नहीं है तो वह इन वृत्तियों को पैदा करने में निमित्त बन जाता है। श्वास दो प्रकार का होता है- लंबा श्वास और छोटा श्वास । जो सहज श्वास है वह वास्तव में लंबा श्वास होना चाहिए। वस्तुत: सहज श्वास और लंबा श्वास पृथक् नहीं है। कुछ लोग यह मानते हैं कि श्वास तो सहज होता है उसे लम्बा किया जाता है किन्तु जीवन विज्ञान का अभिमत है कि दीर्घ श्वास ही वास्तव में सहज श्वास हो सकता है। एक मिनट में जो १५-१६ श्वास लिए जाते हैं, वह वास्तव में सहज श्वास नहीं है। श्वास की संख्या और कम होनी चाहिए। हमारी शारीरिक रचना के आधार पर यदि श्वास हो तो मैं समझता हूं कि एक मिनट में ७-८ से ज्यादा श्वास नहीं होने चाहिए किन्तु पन्द्रह - सोलह श्वास आते हैं क्योंकि हमारी शारीरिक संरचना के साथ-साथ हमारी मानसिक वृत्तियां भी काम करती हैं और उनसे प्रभावित होकर श्वास छोटा बन जाता है। सूत्र इस प्रकार बनता है - उत्तेजना के क्षणों में श्वास छोटा होता है, या जब श्वास छोटा होता है तब आदमी को उत्तेजना आती है। क्रोध के क्षणों में श्वास छोटा बन जाएगा और जब श्वास छोटा बनेगा तब क्रोध आने के प्रसंग ज्यादा बनेंगे।
हमारा नाड़ी-संस्थान प्रवृत्ति के संचालन में सहायता कर रहा है और उसके द्वारा ज्ञान और क्रिया दोनों संपादित हो रहे हैं। उसी के आधार पर ज्ञानवाही नर्व और क्रियावाही नर्व दोनों अपना-अपना ठीक काम कर रहे हैं और जीवन की यात्रा चल रही हैं। किन्तु जब नाड़ी संस्थान सधा हुआ नहीं होता है तो प्राण के प्रवाह अवरुद्ध हो जाते हैं और वे हमारे शरीर के भीतर अनेक विकृतियां पैदा करने लग जाते हैं। बहुत सारी विकृत आदतों के लिए नाड़ी - संस्थान ही सहायक बनता है।
इस प्रकार तंत्र के चारों तत्त्व सहयोगी भी बनते हैं और बाधक भी बनते हैं। यदि शिक्षित हैं तो हमारा सहयोग करते हैं और अशिक्षित हैं तो अवरोध करते हैं।
जीवन विज्ञान का आधार तत्त्व: प्रशिक्षण
शरीर की साधना, श्वास की साधना, वाणी की साधना और मन की साधना - इन चारों की साधना करना, चारों को शिक्षित करना जीवन विज्ञान की
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