Book Title: Jindas Suguni Charitra
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Navalmalji Surajmalji Dhoka

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Page 9
________________ माइ । श्वामी मुज दिशा माठी किम आइ । वीती हकीगत दर्शावे ॥ धर्म ॥ ५ ॥ ऋषि कहे कर्म की विचित्र गती । नरिन्द्र सुरिन्द्र की बीगडी रती । बीजा की कांइ कहवा वे ॥धर्म ॥ ६ ॥ पूर्व भवमें जे करणी करी । ते भुक्तो इहां खोटी खरी । अब आर्त ध्याइ | क्यों नवा बंधावे ॥ धर्म ॥ ७ ॥ चिंता कीया थी दुःख नहीं मिटे । जैन धर्म किया थी पाप घटे । सुख गयो तिम दुःख विरलावे ॥धर्म ॥ ८ ॥इम सुणी मुनीवर की वाणी । हर्ष्या घणा दोनो प्राणी । नित्य नियम करण ते चित्त ठावे ॥धर्म ॥ ९ ॥ साधूजी तो विहार का । दम्पती धर्म मे चित्तदीनो । नित्य त्रिकाल धर्म ध्यान ध्यावे ॥ धर्म ॥ १० ॥ धर्म थी कूकर्म भश्म थया । एकदा सेठाणी ने गर्भरह्या । पुण्यवंत प्राणी कुंखे आवे ॥ धर्म ॥ ११ ॥ दीठा कुम्भतणो स्वपनो । सुणतां सेठने हर्ष उपनो । नित्यधर्म ध्यानने बधावे ॥ धर्म ॥ १२ ॥ ॥वैपारमें होनेलगी कमाइ । देणदार गयासहू नरमाइ । इमधन्न तणी वृद्धी थावे ॥ धर्म ॥१३॥ जिसने जागा लीनीथी माल । वो आइबोले मीठा बोल । मुज कुटम्ब तिणमेंनही खटावे ॥धर्म॥१४॥ लिया दाम मुजने दीजे । पाछेा तुमारो घरलीजे । तेद्रव्य चुकाइ पाछा ठाम आवे ॥धर्म ॥ १५॥ तीजेमासे उपनो डाहला । दानधर्म करीने लावाला । चारोंसिंघ की भक्ता सुहावे ॥धर्म॥१६॥ पुण्याथी सहूं इच्छा होवे पूरी । पाले गर्भ रही दोषे दूरी | नव

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