Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
View full book text
________________
जयपुर (खानिया ) तत्त्वंचर्चा उपादान शक्तियोंके सद्भाव में भी केवल अनुकूल निमित्त सामग्रीके अभाषके कारण ही घड़ा या सकोरा आदि रूपसे परिणत नहीं हो पाती है। इसलिये जब कुम्हार अपनी इच्छाशक्ति, ज्ञानदाक्ति और श्रमशक्तिके आधारपर खानसे उस मिट्टीको लाकर और दण्ड, चक्र आदि आवश्यक अन्य निमित्त सामग्रीका सहयोग लेकर अपने पुरुषार्थ द्वारा उस मिट्टीको घड़ा या सकोरा आदि जिस निर्माणके अनुकूल अनुप्राणित करता है उस समय उस मिट्टीसे उसको अपनी योग्यतानुसार उस कार्यको उत्पत्ति हो जाती है।
इसके अतिरिक्त हम, आप और दूसरे सभी लोग विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिके लिये उक्त कार्यके अनकल योग्यता रखनेवालो जमादानभत वस्ती संप्राप्ति हो जानेपर भी प्रतिदिन और प्रतिक्षण तदनकल निमित्त सामग्रोके जुटाने में परिश्रम किया करते हैं। क्या आपने कभी यह सोचा है या आप सोचने के लिये तैयार है कि जब उपादान विवक्षित कार्यरूप परिणत होनेके लिये अपनी तैयारी कर लेगा तब वह कार्य अपने आप हो जायगा अथवा उस कार्यके अनुकूल निमित्त सामग्रो नियमसे उपस्थित रहेगी या स्वयमेव प्राप्त हो जायगी और तब अपनी इस मान्यताके अनुसार ही आप क्या विवक्षित कार्य करने में अथवा तदनुकूल निमित्त सामग्रोके जुटाने में पुरुषार्थ करना छोड़ सकते है ? या फिर अपने इस अनुभवको सहो मानते हैं कि किसी विवक्षित कार्यको उत्पत्तिका आप पहले अपने अन्त:करणमें रांकल्प करते है फिर अपनी ज्ञानशक्ति और श्रमशवितके अनुसार उम वावको सम्पन्न करनेके लिये तदनुकूल सामग्रीका राहयोग लेकर पुरुषार्थ धारते है ? यह बात अपने उक्त विविध पहलांके साथ विचार लिये आपके सामने उपस्थित है।
इतना ही नहीं, एक प्रश्न और ज्ञापसे हम पछते है कि यदि आप कार्योत्पत्ति के विषयमें अपने उक्त सिद्धान्सकी सत्यतापर आस्था रखते हैं तो कार्य और उसकी साधनसामग्रो के विषय में जो संकल्प, विकल्प
और पुरुषार्थ आप किया करसे हैं उन सबसे विरत होकर आप क्या अकर्मण्यताके माय चुप होकर बैठने के लिये तैयार हैं ? और यदि आप ऐसा करनेके लिये तैयार भी हो जावे तो क्या आपको विश्वास है कि आपका विवक्षित कार्य स्वतः ही समय आनेपर सम्पन्न हो जायगा ? तथा आपको यह भी क्या विश्वास है कि आप इस तरहकी प्रवृत्ति करनेपर लोकमें हँसीके पात्र नहीं होंगे ? यद्यपि आप कह सकते हैं कि लोक तो अज्ञानी हैं, तो यह बात हम भी मान सकते हैं कि उसके हमनेकी आप चिन्ता नहीं करेंगे, परन्तु कम-से-कम कार्यसम्पन्नता कैसे हो सकती है ? और वह होती है या नहीं, इत्यादि बातों पर तो आपको उस समय भी विचार करना ही होगा।
'उपादानके बलपर ही कार्य निष्पन्न होता है, निमित्त तो वहौर अकिचित्कर हो रहा करता हैअपनी इस मान्यताकी पुष्टि करते हए आगे आपका लिखना यह है कि 'कार्यको सस्पत्ति में केवल इतना भान सेना हो पर्याप्त नहीं है कि गेहूंसे ही गेहूँ के अंकुर आदिको उत्पत्ति होती है । प्रश्न यह है कि अपनी विवक्षित उपादानको भूमिकाको प्राप्त हुए गिना केवल निमित्तके बलसे ही कोई गेहूँ अधुरादि रूपसे परिणत होता है।'
यद्यपि आपका यह लिखना सही है कि गेहूँसे ही गेहूँकी उत्पत्ति होती है-केवल ऐसा मान लेना कार्योत्पत्ति के लिये पर्याप्त नहीं है और यह बात भी सही है कि उपादानको विवक्षित भूमिकाको प्राप्त हो जानेपर ही गेहूं की अंकुर रूपसे उत्पत्ति हो सकती है, परन्तु आपके इस कथन में हम अनुभव, तकी और आगम प्रमाणके आधारपर इतना और जोड़ देना चाहते है कि विवक्षित उपादानभूत वस्तुको विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिके लिये उसकी योग्यतानुसार विवक्षित भूमिका तक पहुंचना निमित्तों के सहयोगपर ही आवश्यकता