Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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शंका ६ और उसका समाधान
३९३ यदनासरं हि यदवश्यं मवसि तत्तस्य सहकारिकारणमितरस्कार्यमिति प्रतीतम् ।
यह वाक्य पाया जाता है, इसी प्रकार आगे 'तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे इत्यादि वाक्यमें भी 'प्रतीतिसिद्धबात् पारमार्थिक एवं' यह पद पाया जाता है। इन दोनों स्थलोंमें क्रमशः पठित प्रतीत और प्रतीति शन्दोंका अर्थ आपको भी प्रकरणानुसार निविवादरूपसे ज्ञानकी निर्णयात्मक स्थिति स्वीकार करना अनिवार्य है, अतः ऐसी हालत में 'सहेतुकरवप्रसीतेः पवमें पठित 'प्रवीते:' पदका अर्थ विरुद्ध हेतके अभाव में जानको निर्णयात्मक स्थिति करना हो संगत होगा, प्रतीस्याभास नहीं ।
आगे आपने अपने द्वितीय उत्तर पत्रमें कार्यके प्रति निमित्तभूत वस्तु की वास्तविक कारणताको आलोचना करते हुए यह भी लिखा है कि 'भागममें प्रमाणदष्टिमै विषार करते हुए सर्वत्र कार्यको उत्पसि उभय निमित्तसे बतलायी हैं। आगममें ऐसा एक भी प्रमाण उपसमय नहीं होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि उपादान (निश्चय हेतुके अभावमें केवल निमित्त के बलसे काकी उत्पत्ति हो जाती है। पता नहीं, सब जैसे निर्मित मिलते है तब बैसा कार्य होता है-ऐसे कथन में निमिसको प्रधानतासे कार्यकी उत्पत्ति मान लेने पर उपादानका क्या अर्थ किया जाता है।'
इस विषयमें सर्वप्रथम हमारा महना यह है कि आगममें प्रमाणको पुष्टि से विचार करते हुए सर्वत्र कार्यको उत्पत्ति उभयनिमित्तसे बतलायी है। आगममें ऐसा एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि वास्तविक निमित्त ( व्यवहार ) हेतुके अभावमें केवल उपादानके बलसं प्रत्येक वस्त में आगम द्वारा स्वीकृत स्वपरसापेक्ष कार्यको उत्पत्ति हो जाती है फिर हमारी समझमें यह बात नहीं आरही है कि आप निमित्तको कार्यकी उत्पत्ति कल्पनारोपित कारण मानकर अकिंचित्कर क्यों और किस आधार पर मान रहे है? और यदि आप कार्यकी उत्पत्तिमें निमित्तको उपादानके सहयोगी रूप में स्थान देना स्वीकार कर लेते है तो कार्यकारणभावके विषम में विवादकी समाप्ति ही समझिये।
हमें इस बात पर भी आश्चर्य हो रहा है कि उपादान हेतुके अभावमें केवल निमिनके बलसे कार्यकी उत्पत्तिको जब हम नहीं स्वीकार करते है तो इस गलत मान्यताको हमारे पक्ष के ऊपर आप बलात् क्यों थोप रहे, क्योंकि हमारी स्पष्ट घोषणा है और यह आपको मालम भी है कि हमारी आगमसम्मत मान्यताके अनुसार उपादान शक्ति न हो तो निमित्त केवल अपने ही बलसे कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता है अर्थात स्पष्ट मत यही है कि किसी भी वस्तु में कार्यकी उत्पत्ति उसमें स्वभावतः पायी जानेवाली उपादान शक्तिका सदभाव ही हो सकती है, निमित्तमूत वस्तु तो उस कार्यको उत्पत्ति में सहायक रूपसे ही उपयोगो होती है, जिसका मतलब यह निकलता है कि बस्तुके कार्यमै उपादान शक्तिका सद्भाव रहते हुए भी अबतक निमित्त सामग्रीका सहयोग उसे प्राप्त नहीं होगा तबतक उससे स्वपरसापेक्ष परिणनिका होना असम्भव ही रहेगा और इसका भी मतलब यह निकलता है कि प्रत्येक बस्तूमें स्वभावरूपसे प्रतिनियत नाना उपादान शक्तियाँ एक साथ पायी जाती है, परन्तु उस वस्तुको उसकी जिस उगदान शक्तिके अनुकुल सहयोग प्रदान करनेवाली निमित्त सामग्री अब प्राप्त होगी उस निमिरा सामनोके सहयोगके आधारपर ही वह वस्तु उस समय अपने में विद्यमान उस उपादानशक्तिके अनुसार परिणमन करेगी। जैसे प्लानकी मिट्री घड़ा, सकोरा आदि विविध निर्माणके अनुकूल प्रतिनियत उपादान शक्तियाँ स्वभावतः एक साथ विद्यमान हैं। ये सभी उपादान शक्तिमा तबतक लुप्त पड़ी रहती है जबतक कि किसी भी उपादान शक्ति के विकासके अनुकूल सहयोग देनेवाली निमित्त सामग्रीको प्राप्ति उसे नहीं हो जाती है अर्थात वह मिट्टी घड़ा, सकोरा आदिके निर्माण योग्य अपनी
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