Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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* जैन विवाह विधि #
मंगलाचरण
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प्रावर्तयजनहित खलु कर्मभूमैा । षट्कर्मणा गृहिवृषं परिवत्यं युक्त्या ॥ निर्वाणमार्ग - मनवद्य - मजः स्वयम्भूः । श्रीनाभिसुनुजिनपो जयतात् स पूज्यः ॥ १ ॥ श्री जैन सेन – वचना - न्यवगाह्य जैने । संघे विवाहविधि - रुचमरीतिभाजाम् ॥ उद्दिश्यते सकलमंत्रगणैः प्रवृत्तिं । सानातनीं जनकृतामपि संविभाव्य || २ || अन्याङ्गना - परिहृते - निज-दार वृत्ते - धर्मो गृहस्थ-जनता-विहितो ऽयमास्ते ॥ प्राच्यप्रवाह इति संतति पालनार्थमेवं कृतौ मुनिवृषे विहितादरः स्यात् ॥३॥ विवाह और उसका उद्देश्यः
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शास्त्र की विधि के अनुसार योग्य उम्र के वर और कन्या का क्रमशः वाग्दान (सगाई) प्रदान, वरण, पाणिग्रहण होकर अन्त में सप्तपदी पूर्वक विवाह होता है। यह विवाह धर्म की परं परा को चलाने के लिए, सदाचरण और कुल की उन्नति के लिए और मन एवं इंद्रियों के असंयम को रोककर
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