Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(७६) यह सब मोह बढावन हारे, जिय को दुर्गति दाता। इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुखसाता ।। मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, मांगो इच्छा जेती। समता घर कर मृत्यु करो तो, पाश्रो संपति तेती॥ चौ श्राराधन सहित प्राण तज, तो ये पदवी पावो। हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो ॥ मृत्यु कल्यढमसन नहि दाता, तीनों लोक मझारे। ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ॥ इस तन में क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरन हो है। तेज कांतिबल नित्य घटत है, था सम अथिर सु कोहै। पंचों इन्द्रिय शिथिल भई अत्र, स्वास शुद्ध नहिं भावे । ता पर भी ममता नहिं छो, समता उर नहि लावै ॥ मृत्युराज उपकारी जिय को, तन से तोहि छुड़ावै । नातर या तन बंदीगृह में, परयो परयो बिललावै ।। पुदगल के परमाणु मिलकर, पिंड रूप तन भाषी। याही मूरत मैं अमूरती, ज्ञान जोति गुण खासी ॥ रोग शोक श्रादिक जो वेदन, ते सव पुदगल लारे। मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे।। या तन से इस क्षेत्र संबन्धी, कारण आन बन्यो है। खान पान दे याको पोषो, अब समभाव ठन्यो है। मिथ्या दर्शन आत्मज्ञान विनु: यह तन अपनों जानो। इन्द्री भोग गिने सुख मैंने, आपो नहीं पिछानों॥ तन-विनशन ते नाश जानि निज, यह अज्ञान दुखदाई। कुटुम्ब आदिको अपनो जानो, भूल अनादि छाई ॥
प्रव, निज मेद यथारथ समझो, मैं हूं ज्योति स्वरूपी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com