Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

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Page 105
________________ सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी । मेरो है इक पातम तामें ममत जु कीनो। और सबै मम भिन्न जानि समता रसभीनों ॥ मात पिता मुत बंधु मित्र तिय श्रादि सब यह । मोतै न्यारे जानि जथारथ रूप को गह ॥ मैं अनादि जग जाल मांहि फँसि रूप न जाण्यो । एकेंद्रिय दे आदि जन्तु को प्राण हराएयो॥ ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह अरजी । भवभव को अपराध क्षमा कीज्यो करि मरजी॥ चतुर्थ स्तवनकर्म । नौ रिषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्म को। सभव भवदुखहरण करण अभिनंद शर्म को.॥ मुमतिसुमतिदातार तार भवसिधु पार कर । पदमप्रभ पद्माभ मानि भवमोति प्रीति घर ॥ श्री सुपार्श्व कृतिपाश नाश भव जास शुद्धकर । श्री चंद्रप्रभ चंद्रकांतिसम देह कांतिधर ।। पुष्पदंत दमि दोपकोश भविपोष रोषहर । शीतल शीतल करण भवताप दोषहर ॥ श्रेयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन । वासुपूज्य शत पूज्य वासवादिक भव भयहन ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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