Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી Ibollebec 18 "ટleleble “શારા?? ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ 51.29૦e 85 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जैन विवाह विधि वीरानर्वाणोत्सव बही मुहूर्त पद्धति संपादक नाथूलाल जैन ( संहितासूरि, साहित्यरत्न, शास्त्री, न्यायतीर्थ ) इन्दार प्रकाशक श्री सेठ घन्नालालजी रतनलाल काला मल्हागंज, इन्दौर की ओर से मेंट भाद्रपद शुक्खा ३ वीर नि. सं. २४७७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची १ जैन विवाह विधि २ श्री वीरनिर्वाणोत्सव नई बही मुहूर्त पद्धति ३ समाधिमरण ( श्री सूरचन्दनी कृत ) ४ बारह भावना ( श्री मंगतरायजी कृत ) ५ सामायिक विधिएवं सामायिक पाठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विवाह विधि और वीरनिर्वाणोत्सव बही मुहूर्त पद्धति संपादक नाथूलाल जैन (संहितासूरि, साहित्यरत्न, शास्त्री, न्यायवी ) इन्दार प्रकाशक श्री सेठ धन्नालालजी रतनलाल काला मल्हारगंज, इन्दौर. की ओर से भेंट भाद्रपद शुक्ला ३, वीर नि. सं. २४७७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन समाज में जैनशास्त्रों और समाज के अपने अपने प्रांतों एवं जातिप्रथा के अनुसार प्रकाशित कराई हुई जैन विवाह विधि की दस वारह पुस्तकें हमें देखने को मिलरही है । कुछ हस्त लिखितप्रतियों और स्व. पं. पन्नालालजी वाकलीवाल श्रादि की पूर्व पुस्तकों के आधार पर अन्य पुस्तकों के समान प्रस्तुत पुस्तक की रचना की गई है। इसमें सामायिक आवश्यकता के अनुसार विधि में संशोधन करते हुए धार्मिक जनों की श्रद्धा का ख्याल रख प्रचलित पूजाओं और श्लोकों को उद्धत करके इस पुस्तक का संपादन कर दिया गया है। श्री दि. जैन विद्वत्तरिषद की ओर से भी एक जैन विवाहविधि संपादन करने की सूचना मिली थी। जिसका भाशय संभवत सव जातिओं और प्रांतों के रीति रिवाज का समावेश कर विस्तृत रूप से प्रकाशित कराने का हो। परंतु अकस्मात अवसर पाकर यह कार्य अपनी इच्छा से संक्षेप में ही करना उचित जानकर यह संकलन किया गया है। __ आज से लगभग २६-२७ वर्ष पूर्व जबकि यहां इन्दरिमें और पास पास में जैनक्विाह विधि प्रारंभ ही हुई थी, उन दिनों हम लोग मी,यह विधि कराने जाया करते थे। उस समय शास्त्र के अनुसार ईटों की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) आठ या ६ हाथ ऊंची और १ हाथ ऊंची वेदी ( चबूतरा ) बनवाकर उसपर १ हाथ लंबे चौड़े गहरे तीन कटनी वाले चौकोण तीर्थंकर कुन्ड की रचना कराई जाती थी तथा विवाह सामग्री याने साकल्प ( हवन सामग्री ) घृत समिधा च्यादि का परिमाण मी बहुत रहता था । विधि कराने में तीन चार घन्टे से कम नहीं लगते थे । उसपर भी भाग्यवश विवाहित श्री पुरुषों संबंधी कोई दुर्घटना के होने पर अपयश उठाना पड़ता था । उस दुर्घटना का दोष जैन विवाह विधि पर ही मंडा जाता था। धीरे धीरे प्रचार होते होते आज जो स्थिति है वह सबके सामन है । उत्तर प्रदेश में तो ब्रह्मण पांडे लोगोंतक को यह विधि कण्ठ है और इसीका वे उपयोग करते हैं । जैन विवाह विधि क़रीब १५) रु. या २०) रु. के व्यय में संपन्न हो जाय और गरीब व्यक्ति को भी यह न खरे तथा घन्टे भर के मीतर ही इसका कार्य पूर्ण होजाय, ताकि ज्यादा समय तक बैठे रहने से कन्या के बेहोश हो जाने और लोगों की घबराहट एवं अरुचि की शिकायत न हो इन्हीं लोगों ने काफी सुधार करने का प्रयत्न किया है, जो वेदी - कुन्ड की रचना और तोरण फेरे आदि के विषय में इस पुस्तक में दी गई सम्मति से भी ज्ञात हो सकेगा । इसमें अन्य जाति एवं प्रांत की खास खास प्रथा का भी उल्लेख कर दिया गया है । अन्य फेरपाटा आदि प्रथायें हमने जानबूझ कर नहीं लिखी । हम ज्यादा प्रथाओं को महत्व भी नहीं देना चाहते । जितनी अंधपरंपरा ख्यालों से हम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) और अधिक व्ययके रीति रिवाज तथा परेशानियां कम होंगी उतनी ही समाज को राहत मिलेगी,यह हमारा विश्वास है । जैनविधि को श्वेतांवर समाज में भी प्रचलित कियाजाना चाहिए । वहां मी अब मांग बढ़ रही है। दूसरी पुस्तक इसमें वीरनिर्वाणोत्सव और नई वहीमुहूर्त पदति की है । इसका प्रचार भी इन्दौर में और अन्यत्र मालवा आदि में नहींसा था । श्रीमान् जैनजातिभूषण लाला हजारीलालजी साहब इन्दौर ने १८ वर्ष पहले मुझसे लिखवा कर यह अपनी मोर से प्रकाशित करवाई थी और तब से इसका आपने प्रचार भी कराया। इसके बाद दो वार और यह छप चुकी है। आपने इस पद्धति का और विवाह विधि का प्रचार करने में हर प्रकार की सहायता दी है। श्रीमान प्र. दि पं. मुन्नालालजी काव्यतीर्थ इन्दौर को भी जैन विवाह की विधि का भाव अंश दिखलाकर भौर आवश्यक प्रश्नों के संबन्ध में उनसे सम्मति प्राप्त हुई है तथा भाई जयकुमारजी टोंग्या इन्दौर ने भेंट स्वरूप पुस्तक प्रकाशन के लिए द्रव्य प्रदाता को एवं मुझे प्रेरित कर यह कार्य शीघ्र पूर्ण करा दिया इसके लिए उक्त सब महानुभावों का आभारी हूं। संपादक नाथूलाल शास्त्री, इन्दौर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. सेठ धन्नालालजी काला, इन्दौर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. सेठ धन्नालालजी काला का परिचय श्री पन्नालालजी काला हाटपीपल्वा (मध्यभारत) के पुत्र श्री धन्नालालजी लगभग ६० वर्ष से इन्दौर में निवास करते रहे हैं। आपका जन्म वि.सं. १९३१ में हाटपीपल्या में हुमा था। मापने अपनी नवयुवक अवस्था से ही व्यापार में प्रवेश किया और उसमें कुशलता संपादनकर अपना गार्हस्थ्यजीवन सागंद चलाने लगे। अपनी सादगी, सरलस्वभाव और मिलनसारी आदि गुणों के कारण आपने अपने दि. जैन शंडेलवाल समाज में योग्य स्थान बना लिया। पापकी व्यवस्थित दिनचर्या और साविक भोजन पान करते रहने का परिणाम यह हुआ कि जीवन में आपको कोई खास रोग जनित पीडा का अनुभव नहीं करना पड़ा। आपने दि. जैन तीर्थक्षेत्रों की बन्दना मी सकुशल करती। भापके दो भ्राता श्री पूनमचन्दजी और श्री भूरामलजी काला वर्तमान में इन्दौर में ही निवास करते हैं। श्री धन्नालालजी ने करीब ७४ वर्ष की दीर्घ उन पाई और अपने उत्तराधिकारी योग्य पुत्र श्री रतनलालजी काला को सपरिवार छोडकर संसार की स्थिति के अनुसार वि. सं. २००४ की बैशाख शुक्ला ३ को भाप शांतिपूर्वक स्वर्ग सिधारे। श्री रतनलालजी काला मल्हारगंज दौर में अपने पूज्य पिताजी के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शनार्थ उनकी स्मृति स्वरूप यह पुस्तक प्रकाशित कराई है, जो अमी श्री रतनलालजी कालाकी धर्मपत्नी सौ. रतनबाईजीके रोटतीज व्रत (भाद्रपद शुक्ला ३ के व्रतोद्यापन के शुभ अवसर पर अपने साधी पाठकों की सेवा में सदुपयोग करने के हेतु भेंटकी जारी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जैन विवाह विधि # मंगलाचरण । प्रावर्तयजनहित खलु कर्मभूमैा । षट्कर्मणा गृहिवृषं परिवत्यं युक्त्या ॥ निर्वाणमार्ग - मनवद्य - मजः स्वयम्भूः । श्रीनाभिसुनुजिनपो जयतात् स पूज्यः ॥ १ ॥ श्री जैन सेन – वचना - न्यवगाह्य जैने । संघे विवाहविधि - रुचमरीतिभाजाम् ॥ उद्दिश्यते सकलमंत्रगणैः प्रवृत्तिं । सानातनीं जनकृतामपि संविभाव्य || २ || अन्याङ्गना - परिहृते - निज-दार वृत्ते - धर्मो गृहस्थ-जनता-विहितो ऽयमास्ते ॥ प्राच्यप्रवाह इति संतति पालनार्थमेवं कृतौ मुनिवृषे विहितादरः स्यात् ॥३॥ विवाह और उसका उद्देश्यः '. शास्त्र की विधि के अनुसार योग्य उम्र के वर और कन्या का क्रमशः वाग्दान (सगाई) प्रदान, वरण, पाणिग्रहण होकर अन्त में सप्तपदी पूर्वक विवाह होता है। यह विवाह धर्म की परं परा को चलाने के लिए, सदाचरण और कुल की उन्नति के लिए और मन एवं इंद्रियों के असंयम को रोककर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) मर्यादा पूर्वक ऐन्द्रियिक सुख की इच्छा से किया जाता है क्योंकि पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन अल्प शक्ति रखने वाले स्त्री रुषों से नहीं हो सकता इसलिये आचार्यों ने ब्रह्मचर्याणुव्रत में परस्त्री त्याग और स्वस्त्री संतोष का उपदेश दिया है । यह विवाह देव, गुरु, शास्त्र की साक्षी से समाज के समक्ष होता है, जो जीवन पर्यन्त रहता है। वर और कन्या में कन्या से साधारण तौर पर वर की उम्र कम से कम दो वर्ष और अधिक से अधिक दस वर्ष बड़ी होना चाहिये वर्तमान में कन्या की विवाह योग्य वय.१४ वर्ण से और वर की १६ वर्ष से कम नहीं होना चाहिये । विवाह में आजकल की परिस्थिति को देखते हुए धार्मिक किया और आवश्यक सामाजिक नियमों के सिवाय अन्य रीति रिवाजों में खर्च और बचत करने में ही हित है। विवाह की सामग्री श्रीफ्रन, विनायक यन्त्र, शास्त्र, सिंहासन, चमर, छत्र, अष्टमगल द्रव्य (ठौणा, चम, छत्र, दर्पण, ध्वजा, भारी, कलश, पंखा) जलभरा सफेदलोटा, लालचोल एक हाथ, अन्तर्पट के लिए दुपट्टा, फूलमाला तीन कटनीवाली बेदी, पक्की नंबरीईटें, सूर्ख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) कुंकुम, पिसीहल्दी, में हदी, लच्छा, नागरवेलपान, सुपारी ३ तोला - ४ तो. - २ हल्दीपांठ, सरसों, दीपक, छोटे, रुई, माचिस, घी, चाटू ४ - ४ २ तो. १ ७१ लकडी का, लालचन्दन की व सफेदचन्दन की समिघा १ । । (लकडी) बड़-पीपल-प्राम-ढाक की सूखी समिधा, देशी . कपूर, पूजन द्रव्य [चांवल,गिरी (चटके) केशर,बादाम, लोंग,] १ तो. ॥ ) - २ तो. पूजन उपकरण, हवनद्रव्य (बादामगुली, खोपरा, पिस्ता s- २ तो. लोंग, इलायची, खारक, शक्करकाबूरा) शुद्धदशांग २तो. १ तो. 5धूप, थाली, कटोरी, शुद्धगादी या गलीचा, पाटे, चौकी 5- ४ २ . प्रासन, चांदी की चुअत्री, रुपयानगदी, कागजकीमाला पंचरत्नापुड़ी। मोर:-विनायक यन्त्र मंदिर से प्रतिष्ठित लाने और ले जाने में घर पर छु अाछूत श्रादि से अविनय होता है अतः रकाबी में बना लेना चाहिये। अष्ट मंगल द्रव्य मंदिर से चाँदी पर खुदे हुए मिलते है। पक्की नम्बरी ईटें, कच्ची अशुद्ध ईटेंसे ठीक होती हैं और उनसे एक हाथ लम्बा चौड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) तथा ४ अंगुल ऊंचा शास्त्रानुसार स्थडिल बनजाता है। उन्हें केवल रख देने और ऊपर से मिट्टी बिछा देने से काम चल जाता है और कारीगर की आवश्यकता नहीं रहती। घाटू १ हाथ लम्बा होता है। हवन द्रव्यों को इमानदस्ते में कुटाकर मिला लेना चाहिए । विनायक यन्त्र का आकार । साहूलोगुत्तमा l कवलि पएणत्तो धम्मोलोगुत्तमा अरिहंत सिन जमा लोगुत्तमा केवलि पण्णत्तो धम्मोमंगलम् मापव्वज्जामिन अरिहंत सरण/सिन शिवज्जामि। बंगलममगलमा भि पव्वजामि सरण साहू सरणं HIsbe bemere LADysel क्रो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) वाग्दान ( सगाई) में मंत्रों के समक्ष वर पक्ष और कन्या पक्ष अपने वंशएवं गोत्रादि का परिचय देकर संवन्ध निश्चित करते हैं जिसकी लिखा पढी गोठ के मंदिर में हो जाती है। पारवाढ आदि जातियों में इस समय विनायक यंत्र की पूजन भी की जाजी है । सगाई के समय वर पक्ष की ओर से जो सोना या अन्य रकम का गुप्त रूप से सौदा होने लगा है उसे बंद कर दोनों पक्ष के प्रेम को बढ़ाने का खयाल रखने में ही सबका हित है । बागड़ प्रांत में अभी भी कन्या बिऋय जारो है उसे मी बंद कर देना उचित है । छोटा बाना (विनायक) बैठाना विवाह के कम से कम पांच दिन पूर्व कन्या और बर अपने अपने यहां के श्री जिनमंदिर में जाकर शुभ मुहूर्त में पंच परमेष्ठी याने विनायक यंत्र की पूजा करें। वहां से घर आकर गृहस्थाचार्य से कंकण बन्धन करावें । कंकण बन्धन कन्या के बांये हाथ में और वर के दाहिने हाथ में किया जाय, विनायक पूजा आगे दी गई है । यदि विनायक यंत्र की प्रतिदिन पूजा कर सकते हों तो इसी दिन घर पर लाकरे एकांत स्थान में विराजमान कर देना चाहिये और विवाह होने के समय तक रखना चाहिए । कंकण वन्धन मंत्र | ॥ जिनेन्द्रगुरु पूजनम् श्रुतवचः सदा धारणम् । स्वशीलय मरक्षगं, ददत् सतपोवृंहणम् || इति प्रथितषक्रिया, निरतिचारमास्तां तव । इति प्रथित कर्मणे विहित रचिकाबन्धनम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बाना बैठाना विवाह के कम से कम दो दिन पूर्व दूसरी बार मंदिर मैं जाकर वर और कन्या पूजन करें और घर जाकर पूर्ववत् कंकणबन्धन करावे। मंडप निर्माण विवाह के सात या पांच दिन पूर्व छोटा बाना के समय विवाह मण्डप के लिए मण्ड प की आवश्यक्ता हो तो स्तंभा-- रोपण विधि की जाती है। यह स्तंभ ज्योतिषी से पूछकर चार विदिशा में से किसी एक विदिशा में कन्या के यहां, कन्या के पिता या जो विवाह हाथ में लेता है उसके द्वारा और वर के यहां वर के पिता या. जो विवाह हाथ में ले उसके द्वारा और घर के यहां वर के पिता या जो विवाहहाथमें ले उसके हाथ से शुभमुहूर्त में होता है । कहीं २ स्तंभारोपण कन्या और वर के हाथ से भी करा लिया जाता है। जहां जैसा हो वहां बैसा करा लेवे । इसकी विधि में गृहस्थाचार्य स्तंभारोपण के लिए गड्डा खुदाकर वर या कन्या के पिता माता आदि को जोडे सहित पूर्व या उत्तर की तरफ मुंह करके बैठाकर मंगलाष्टक, मंगल कलश,संकल्प, यन्त्र पूजा पूर्वक स्तंभ का आरोपण करावे । संभ के ऊपर के हिस्से में लाल चोल में श्रीफल; सुपारी, हल्दी गांठ यां दी की चुअन्नी, सरसों, पान, अामके पत्ते, अमरवेल आदि बच्छे से बांध दे और पड़े के पास स्तम्भ खडाकर जल, दूध, दही, पारा, बुकुम आदि क्षेपकर स्तंभ में स्वस्तिक कर गई में समका पारोपण करें। फिर शांति पाठ एवं विसर्जन पाठ करें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) विवाह वेदी घर के यहां केवल मण्डप की रचना होती है । और कन्या के यहां मण्डप के सिवाय भांवर (फेरे) के लिए विवाह-वेदी की रचना भी होती हैं । मण्डप में अथवा अन्यत्र जहां फेरे कराये जाते हैं। उस स्थान पर मंडवा (गंदेवा ) ताना जाता है और कहीं २ मानस्तंभ व कलश (मिट्टी का) भी स्थापित किया जाता है । इस जगह वेदी की रचना की जाती है । वेदी बनाने के लिए कम से कम चार हाथ की लम्बी चौडी जमीन के पास पास चारों कोनों में कुम्हार के यहां से लाए हुए ७-७ बर्तन रखे जायें और उनके चारों ओर चार चार बांस तथा ऊपर भी कुल चार बांस लगाकर उन्हें नीचे लाल चोल से और ऊपर लाल पगडी से लपेटकर मून्ज की रस्सी और लच्छेसे बाँध देना चाहिए । बीच में ऊचा चंदेवा बाँधना चाहिए जिसके नीचे वर कन्या खडे रह सकें। इस वेदी के बिलकुल वीच में एक हाथ लम्बा चौडा स्थंडिल, जो विवाह सामग्री के भीतर बताया गया है, बनाया जाय । इसीपर हवन होगा। इस स्थंडिल के पश्चिम या दक्षिण ओर आघा हाथ छोड़कर एक हाथ की जगह में तीन करनी वाली चौकी या उस हिसाब से एक हाथ लम्बाई से ईटें रख देना चाहिए । फेरे या पाणिग्रहण संस्कार विधि कन्या के यहां वर बरात लेकर जाता है यह बरात बाहर गांव की हो तो सारी विवाह संबन्धी कार्यवाही दो दिन के भीतर ही हो जाना चाहिये। वर्तमान परिस्थिति को देखते हुये हमारी सम्मति में एक दिन में तोरन और फेरे होकर दूसरे दिन बरात विदा कर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देना चाहिए । तोरन में भी बरात का स्वागत होकर तिलक आरती हो जाय इसके पश्चात ही पाणिग्रहण संस्कार हो जाना चाहिए । तोरण का अभिप्राय है कन्या के द्वार पर जाना । उत्तर प्रदेश में पहले से और मध्य भारत में अभी यह होने भी लगा हैं । अग्रवाल जाति में बरात के आनेपर बरात में यन्त्र पूजा होती है इसके बाद बरात कन्याके यहाँ जाती है । फेरे के अाधा घंटे पहले गृहस्थाचार्य विवाह की सामग्री देखकर उसे वेदी के स्थान पर यथा स्थान जमादे। पुजारी से पूजन द्रव्य धुलवाकर मंगा लिया जाय । स्थडिल पर कुंकुम से साथिया बना ले और चारों ओर दीपक रख दे । पूर्व या उत्तर मुम्ब बनी हुई तीन कटनी में ऊपर यन्त्रजी, बीच में शास्त्र और नीचे गुरुपूजा के निमित्त चौसठ ऋद्धि कागज पर मारकर रखे तथा वहीं अष्ट मंगल द्रव्य सजावे। वर कन्या के बैठने के लिए यंत्र के दक्षिण ओर नई गादी विछवा दे, जिस पर वे उत्तर मुख बैठ सकें। विवाह का मुहूर्त विवाह में अग्रवालों में कन्या प्रदान और पाणिपीडन (हथलेवा) का मुहूर्त मुख्य माना जाता है। ब्राह्मण ज्योतिषी इन्हीं मुहतों को निकाला करते है। परन्तु जैन विधि के अनुसार खण्डेलवालों में जब कि वर कन्या विवाह बेदी में आते हैं तब मंगलाष्टक बोलकर परस्पर वरमाला पहनाई जाती है । उसी का मुहूर्त माना जाता है । अग्रवालों में वर के मण्डप में भाते ही इस समय तीन फेरे करा लिया जाते हैं पीछे विवाह विधि में शेष चार फेरे होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्या को स्नान द्वारा नियां वर के स्थान (जनिवासा) पर वर को स्नान कराने पावें, और परदिर पास में हो तो दर्शन कर ठीक मुहूर्त से १५ मिनिट पहले बंडप में प्राजाय दरवाजे पर कन्या की माता चांवल का छोटासा चौक पूर कर पास रखे और उसपर वर के पैर बल से घोवे फिर आरती करे । कन्या का मामा वर को तिलक कर एक रुपया व श्रीफल भेंटकर साथ में वेदीपर लाकर गादी पर पूर्व मुख खडा करदे । पीछे कन्या को मी गादीपर लाकर वर के सामने पश्चिम मुख खडा करदे । बीच में एक डुपट्टा (अन्तपट) लगादे जिसे दो व्यक्ति पकड़ रखें । घर और कन्या को एक एक पुष्पहार देदे । वर और कन्या के मुंह में इस समय पान सुपारी न हो और न कन्या चप्पले पहिने वेदी में आवे । गृहस्थाचार्य आगे लिखा मंगलाष्टक पढे और ठीकमुहूर्त पर कन्या वर को और वर कन्या को पुष्पमाता पहना दे। पीछे दोनों पूर्व मुख होकर गादी पर बैठ जावे कन्या कर के दक्षिण ओर रहे। गृहस्थाचार्य वर से मंगल कलश स्थापन करावे । कलश में शुद्ध जल, सुपारी, हल्दी गांठ, एक रुप्या, पवन पुडी (यह सराफा बाजार में एक १) करीब में भाती है) और पुष्पहालकर श्रीफल व लाखकोन से तक सडलेले बांधे और पान रखाकर काम की माता पहनावे। मंगल कलश स्थापन मंत्र मोमय ममवतो महापुरुषस्य श्रीमददि बरसो मतेरिम विधीयमान विवाह कर्मणि भाक वीर निर्भस संबव सरे अमुक सियो अमुक दिने शुभ लग्ने भूमि शुद्धयर्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) पात्रशुद्धयर्थ क्रियाशुद्धयर्थ शान्त्यर्थ पुण्याहवाचनार्थ नवरत्न गंध पुष्पा क्षत वीज पूरादि शोभित शुद्ध प्रासुकतीर्थ जल पूरितं मंगलकलशस्थापनम् करोमि भूवीक्ष्वी हंसः स्वाहा। नोट-इसे पुण्याहवाचन कलश मी कहते हैं। मंगलाष्टक । श्रीमन्नम्रसुरासुरेन्द्रमुकूटप्रद्योतरत्नप्रभा । भास्वत्पादनखेदवः प्रवचनांमोषींदवः स्थायिनः॥ ये सर्व जिनसिद्ध सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः । स्तुत्या योगिजनश्च पंचगुरवः कुवंतु ते मंगलम् ॥१॥ अहंतो भगवन्त इन्द्र महिताः सिद्धाश्च सिद्धीश्वराः । प्राचार्या जिनशासनोनोतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः ।। श्रीमिद्धांतमुपाठका मुनिबरा रत्नत्रयाराधारकाः। पंचैतेपरमेष्ठिनः प्रतिदिन कुर्वन्तु ते मंगलम् ।।२। सम्यग्दर्शनबोधवृत्तममल रत्नत्रयं पावनं । मुक्तिश्रीनगराषिनाथजिनपत्युक्तोपवर्गप्रदः ॥ धर्मः सूक्निसुधा च चैत्यमखिल चत्यालयं श्रयालयं । प्रोक्तं च त्रिविधंचतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥३॥ मोहारलता भवत्यसिलतासत्पुष्पदामायते । संपद्येत रसायनं विषमपि प्रीति विधने रिपुः॥ देवाः बान्ति व प्रसन्नमनसः किंवा बहुमहे । धादेव नमोऽपि वाति मृशं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) कुर्यात् सदा मंगलम् ॥४॥ ये सवैषधऋद्धयः सुतपसो बृद्धि गताः पंच ये । ये चाष्टांगमहानिमित्तं कुशलावाष्टौविधाश्चा रणाः ॥ पंचज्ञानधरास्त्रयोपि बलिनो ये बुद्धिवृद्धीश्वराः । सप्तैते सकलार्चिता गणभृतः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥५॥ कैलाशो वृषभस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरी । चम्पा वा वसुपूज्यसाजनपते सम्मेदशैलोईताम् ॥ शेषाणामपि चोजयंत शिखरी नेमीश्वरस्याहतः ॥ निर्वाणावनयः प्रसिद्धविभवाः कुर्वन्तु ते मंगलम् ॥ ६॥ ज्योतिव्यंतरभावनामरगृहे मेरी कुलाद्री स्थिताः । जम्बूशाल्मलिचैत्यशाखिषु तथा वक्षाररूप्यादिषु । इवाकारगिरौ च कुंडलनगे द्वीपे च नंदीश्वरे। शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुतु ते मंगलम् ॥ ७॥ यो गर्भावतरोत्सवो भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो । यो जातः परि निष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानमाक् ॥ यः कैवल्यपुर प्रवेश महिमा संभावितः स्वर्गिमिः । कन्याणानि च तानि पंच सततं कुर्वतु ते मंगलम् ॥८॥ इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टक मिदं सौभाग्यसंपत्प्रदम् । कल्याणेषु महोत्सवेषु सुषियस्तीर्थ कराणांमुखतः ॥ ये शृण्वंति पठंति तैश्च सुजनधर्मार्थकामा विता । लक्ष्मीरा श्रयते व्यापाय रहिता निर्वाखलक्ष्मीरपि ॥९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) पूजन प्रारम्भ | ओं जय, जय, जय । नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोस्तु णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं | णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ ( अनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः) चचारि मंगलं अरिहन्त गंभलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्यतो धम्मो मंगलं । चत्तारिलोगुत्तमा, अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा, चत्तारि - सरणं पव्वज्जामि - अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मोसरणं पव्वज्जामि | ( ॐ नमोईते स्वाहा ) अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुस्थितोऽपि वा । ध्यायेत्पपश्च नमस्कार, सर्व पापैः प्रमुच्यते ॥१७ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां मत्तोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥२॥ अपराजित - मन्त्रो ऽयं, सर्व - विघ्न विनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥ ३ ॥ ऐसो पंच मोयारो; सव्वपाचप बासो । मंगलाणं च सव्वासें, पढमं होई मंगलम् ॥४॥ श्रहमित्यक्षरं ब्रह्म द्यचकं परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सदबीजं, सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥ ५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) कमाष्टर-विनिमुक्त-मोक्ष-लक्ष्मी निकेतनम् । सम्यक्त्वादि-गुणोपेतं, सिद्धचक्रं नमाम्यहम् ॥६॥ विघ्नाधाः प्रलय यान्ति, शाकिनी-भूतपनगाः । विष निर्विषतां याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ ७ ॥ (पुष्पांजलि क्षेपे) उदकचन्दनतन्दुल पुष्पक चरुमुदीप-सुधूप-फलाकः । धवलमंगलगान-वाकुले, जिनगृहे जिननाम, न्वहं यजे ॥ ओं ही श्री.मगवजिनसहस्रनामधेयोभ्योऽर्थ्यम् । देवशास्त्रगुरु पूजा का अर्थ जल परम उज्ज्वल गंध ऋचन, पुष्प चरु दीपक धरूँ । वर धूप निर्मल फल विविध बहु, जनम के पातक हुसै। इह मोति अर्थ चढ़ायनित भवि,करत शिव पैति मंचू । अरिहंस श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रन्थं नित पूजा र ॥ दोहा-वसुविध अर्घ संजीयक, अति उचाई मन कोन । जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र पुरु तीन ॥ ओं ही देशांन गुरुभ्योऽनयपदप्राप्तये ऽयम् । -: श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरों का अर्थ :जल फल भौठो दर्व अरेघ कर प्रीति घरी ।। : :Or . " . गणधर इन्द्रान हत, श्रुति पूरी न करी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) द्यानत सेवक जानके (हो) जगत लेहु निकार । सीमन्धर जिन आदि दे, बीस विदेह मझार ।। श्री. निनराज हो, भव तारण तरण. जिहाज। ओं ह्रीं श्री सीगंधरादि विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्योऽध्यम् । - कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयों का अर्घ-. गयन्ति जिन-चैत्यानि, विद्यन्ते भुवन-त्रये । तावंति सततं भक्त्या, त्रिः परीत्य नमाम्यहम् ॥ ओं ही श्री त्रिलोक्रांधि कृत्रिमाकृत्रिमजिन बिम्बेभ्योऽध्य निर्वामीति स्वाहा । नवदेव पूजन अरिहन्तसिद्धसाधुत्रितयं, जिनधर्मविम्बवचनानि । जिननिलयान्नवदेवान्, संस्थापये भावतो नित्यम् ॥१॥ ___ओं ही श्री नवदेवेभ्यः पुष्पांजलिं तिपामि । ये घाति-जाति-प्रतिघात-जातं, शक्रायलध्यंजगदेकसारम् । प्रपेदिरेऽनंतचतुष्टयं तान्, यजे जिनेन्द्रानिह कर्णिकायाम् ॥ ओं ही श्री अहत्परमेष्ठिने अय॑म् ॥१॥ निःशेषान्धक्षयलब्धशुद्ध,--बुद्धस्वभावन्निजसौख्यवृद्धान् । भाराधये पूर्वदले सुसिद्धान्, स्वात्मोपलब्ध्ये स्फुटमष्टधेष्ट्या । . . म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) ओं ह्रीं श्री सिद्धपरमेष्ठिने अय॑म् ॥२॥ ये पञ्चधाचारमरं मुमुक्षू नाचारयन्ति स्वयमा-चरन्तः । अभ्यर्चये दक्षिणदिग्दले ता, नार्यवान्स्वपरार्थचर्यान् ।। __ओं ह्रीं श्री आचार्य परमेष्ठिने अध्यन् ॥३॥ येषामुपान्त्यसमुपेत्य शास्त्रा, एयधीयते मुक्तिकृते विनेयाः । अपश्चिमान्यपश्चिमदिग्दलेऽस्मिन् नमूनुपाध्यायगुरून्महामि ओह्रीं श्री उपाध्यायपरमेष्ठिने अय॑म् ॥४॥ ध्यानकतानानवहिः प्रचारान्, सर्वसहानिर्वृत्ति-साधनार्थ । संपूजयाम्युत्तदिग्दले तान्, साधूनशेषान् गुणशीलसिंधून् । ___ओं ह्रीं श्री साधुपरमेष्ठिने अय॑म् ।।५।। आराधकानभ्युदगे समस्तानिःश्रेयसे वा धरति ध्रुवं यः । तं धर्ममाग्नेयविदिग्दांते, संपूजये केवलिनोपदिष्टम् ।। ___ओं ह्रीं श्री जिनधर्माय अर्घ्यम् ॥६॥ सुनिश्चितासंभववादकत्वात्, प्रमाणभूतं सनयप्रमाणम् । यजे हि नानाष्टकमेवेदं, मत्यादिकं नैर्ऋतकोणपत्रे ॥७॥ ओ ह्रीं श्री जिनागमाय अयम् ॥७॥ व्यपेतभूषायुध-वेशदोषा, नुफेत-निःसंगत याद्रमूर्तीन् । जिनेन्द्रविवान्भुवनत्रयस्थान, समचये वायुनिदिन्दलेऽस्मिन् ॥ ओं ह्रीं श्री जिनबिम्बेभ्यः अय॑म् ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालत्रयान्सद्मनि केतुमाम, स्तम्भालयान्मंगल मंगलाढ्यान् । गृहान् जिनानामतान्कृताच, भूतेशकोणस्थदले यजामि ॥ ओं ह्रीं श्री जिमरत्वालयेभ्यः अर्घ्यम था, मध्येकर्णिकमहदार्यमन पायेऽष्टपत्रौदरे । सिद्धान् सूरियरॉथ पाठकगुरुन साधूश्च दिक पत्रगान् । सद्धमार्गम-चैत्य-चैत्य मिलयोन कोणस्थदिपत्रगान् । भक्त्या सर्वसुरासुरेन्द्रमहितान् तानष्टषेण्ट्या यजे ॥१०॥ ओंनी श्री अहंवादिनवदेवेभ्या पूर्णाध्यम् ॥१०॥ विनायक यन्त्र पूजा परमेष्ठिन्- जगत्त्राण करणे मंगलोत्तम । इतः: शरण तिष्ठ , सन्निहितोस्तु पावनः ॥ ओं ह्रीं असिआरसा मंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पुष्पांजलि क्षिपामि । पंकेरुक्षपातपसमा पुञ्ज सौगन्ध्यमंद्रिः सलिल पवित्र। अहत्पदामाक्ति मंगलाशैन,' प्रत्यूहमाशयमह यजामि ।।' ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणमूतेभ्य, पंचपरमेष्टिभ्यो जलम्।।२॥ काश्मीस्मापूर-कृतद्रवेण,' संसार-तापापहती पुतेन ।' महत्पदा माषित मगलादीन् प्रत्यूह नाशार्थमजामि ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणमूर्तभ्यः पर्चपरमेष्ठिभ्या चंदनम२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) शाल्यक्षतरक्षत-मूर्तिमाद्भ-रजादिवासेन सुगन्धवाद्भिः॥अहं.। ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः अक्षतान् ॥३॥ कदंबजात्यादिभवः सुरद्रुमै,जातैमनोजातविपाशदः ॥अहः।। ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य; पंचपरमेष्ठिभ्वः पुष्पम् ४॥ पीयूश्चपिंडैश्च शशांककांति--स्पर्द्धद्भिरिष्टै यन-प्रियैश्च ॥अहं. ओं हां श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः नैवेद्यम् ॥५॥ ध्वस्तांधकारप्रसैरः सुदीपै,घृतोद्भवैरत्नविनिर्मित र्वा ॥ई.।। ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः दीपं ॥६॥ स्वकीय धूमेन नभोवऽकाश व्यापद्भिद्यैश्च सुगंधधूपैः॥अह।। ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः धूपं ॥७॥ नारंग पूगादिफलंग्नध्य, हृन्मानसादिप्रियतपकैश्च ॥अर्ह.। ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्य; पंचपरमेष्ठिभ्य; फलं ॥८॥ अमश्चन्दन नन्दनाचत तरूद्भुत निवेधैर्वरै । दीपैखूप फलोत्तमैः समुदितै रेमिः सुपात्रस्थितैः ।। अर्हत्सिद्धसुखरिपाठकमुनीन्, लोकोत्तमान्मगलान् । प्रत्यूहौषनिवृत्तये शुभकृतः मेवे शरण्यानहम् ।। ओं ह्रीं श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्योऽयन् ॥३॥ कल्याणपंचक कृतोदयमाप्तभीशमहन्तमच्युत चतुष्टयभामुरांगम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) स्याद्वादवागमृत-सिंधुशशांक कोटि-- मर्चे जलादिमिरंगतगुणालयं तम् ॥१॥ ओं हीं श्री अनन्तचतुष्टयसमवशरणादिलक्ष्मीविभ्रतेऽहत्पर मेष्ठिने अयम् ! कमाष्टकेम चय मुत्पथ माशु हुत्वा। सध्यानवद्धिविसरे स्वयमात्मवन्तम् । निश्रेयसामृतसरस्यथ संनिनाय, तं सिद्धमुच्चपददं परिपूजयामि ॥ २॥ ओ ही श्री अष्टकर्मकाष्ठगणभ.मीकृतेसिद्धपरमेष्ठिनेऽध्यम् । स्वाचार-पंचकमपि स्वयमाचरंति, ह्याचारयन्ति भविका निजशुद्धि-माजः । तानर्चयामि विविधैः सलिलादिमिश्च, प्रत्यूहनाशनाविधौ निपुणान पवित्रैः ॥३॥ ओं ह्रीं श्री पंचाचारपरायणाय आचार्यपरमेष्ठिनेऽयम् । अंगांग-वाद्यपरिपाठन बालसानामष्टांगमानपरिशीलन-भवितानाम् । पादारविदयुगलं खलु पाठकानां, शुद्धजलादिवसुभिः परिपूजयामि ॥en ओं ह्रीं श्री द्वादशांगपठनपाठनोद्यताय उपाध्यायपरमेष्ठिनेऽव॑म् । आराधना सुखविनासमोरासम्बा, অবমানিক। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) स्तोतुं गुणान् गिरिवनादिनिवासिनां वै, एषोऽर्घतश्चरणनीठभुवं यजामि ॥५॥ ओं ह्रीं श्री त्रयोदशप्रकारचारित्राराधकसाधुपरमेष्ठिनेऽय॑म् । अहन्मंगलमर्चामि, जगन्मंगल दायकम् । प्रारब्धकर्मविघ्नौध-प्रलयप्रदमन्मुखैः ॥६॥ ओं ह्रीं श्री अर्हन्मंगलायाय॑म् ।।६।। चिदानन्दलसद्वीचि-मालिनं गणशालिनम । सिद्धमंगलमर्चेऽह, सलिलादिमिरुज्ज्वलैः ॥ ओं ह्रीं श्री सिद्धमंगलायाय॑म् ॥णा बुद्धिक्रियारसतपो-विक्रियाषधिमुख्यकाः । ऋद्धयो यं न मोहंति, साधुमंगल मर्चये ॥८॥ ओं ही श्री साधुमंगलायाय॑म् ॥८॥ लोकालोकस्वरूपज्ञ-प्रज्ञप्तं धर्म मंगलम् । अर्च वादित्रनिष-पूरिताशं वनादिमिः ॥९॥ ओं ह्रीं श्री केवलिप्राप्तधर्म मंगलाबाय॑म् ॥ लोकोत्तमोऽर्हन् जगतां, भवनाधाविनाशकः । प्रयतेऽघेण स मया, कुकर्मपणहानये ॥१०॥ ओं ह्रीं श्री अहल्लोकोत्तमायाय॑म् ।।१०। विश्वाशिखरस्थायां, सिदो लोकोचमो मया । माते महसामंद,-चिदानन्दथुमेदुरा ॥११॥ ओं ह्रीं श्री सिद्धलोकोत्तमायाय॑म् ॥११॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) रागद्वेषपरित्यागी, साम्यभावावबोधकः । साधुलोकोत्तमोऽधैंण, पूज्यते सलिलादिभिः ॥१२॥ ओं ह्रीं श्री साधुलोकोत्तमायाय॑म् ॥१२॥ उत्तमक्षमया भास्वान्, सद्धर्मों विष्टपोत्तमः । अनंतसुख संस्थानं यज्यतेऽम्भः सुमादिभिः ॥१३॥ ओं ह्रीं श्री केवलिप्रज्ञप्तधर्मलोकोत्तयायाय॑म् ॥१३॥ सदाहंन्शरणं मन्ये नान्यथा शरण मम । इति भावविशुद्ध्यर्थ, महयामि जलादिभिः ॥१४॥ ओं ह्रीं श्री अच्छरणायाध्यम्। व्रजामि सिद्धशरणं, परावर्तनपंचकम् । भित्वा स्वसुखसंदोह,--सम्पन्नमिति पूजये ॥१॥ ओं ह्रीं श्री सिद्धशरणायाय॑म् ।। आश्रये साधुशरणं, सिद्धांत प्रति पादनैः । न्यक्कृताज्ञानतिमिर,मिति शुद्धया यजामि तम् ॥१६॥ ओं हां श्री साधुशरणायाय॑म् ॥१६॥ धर्म एव सदा बन्धुः , स एव शरणं मम । इह वान्यत्र संसारे, इति तं पूजयेऽधुना ॥१७॥ ओं ह्रीं श्री केवलिप्रज्ञप्त धर्मशरणायाध्यम् ।।१७॥ संसार दुःख हनने निपुणं जनानाम् । नाद्यन्त चक्रमिति सप्तदश प्रमाणम् ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) .. . . . . संपूजये विविधभक्ति भरावनम्रः । शांतिप्रदं भुवनमुख्यपदार्थ साथैः ॥१८॥ ओं हों श्री अहंदादिसप्तदश मंत्रेभ्यः समुदायार्यम् । इसके पश्चात् ९ वार एमोकार मन्त्र का जाप्य करें। जयमाला। विघ्नग्रणाशनविधी सुरमय॑नाथा । भग्रेसर जिन वदन्ति भवंतमिष्टम् ।। भानाधनंतयुगवर्तिनमत्र कार्यगार्हस्थ्यधर्मविहितेऽहमपि स्मरामि ॥ विनायकः सकलर्मिजिनेषु धर्मम्वेधा नयत्यविरतं दृढसप्तमंग्या । यदध्यानतो नयनमावमुज्झनेनबुद्धः स्वयं सकलनायक इत्यवाप्तेः ॥ गणानां मुनीनामधीशवतस्ते. गणेशाख्यया. ये भवन्त स्तुवन्ति । सदा विघ्नसंदोहशांतिजेनानां, करे .संलुरत्यायतश्रेयसानाम् । अतस्त्वमेवासि विनायको मे. दृष्टेष्टयोगानवरुद-भावः । त्वनाममात्रण पराभवन्तिविघ्नारयस्तीह किमत्र चित्रम् ॥ जय जय जिनराज त्वद्गुणान्को व्यक्ति, यदि मुरगुरुरिन्द्रः, कोटि वर्ष प्रमाणं । वदितुमभिलषेद्वा पारमाप्नोति नो चेक. कति य इह मनुष्याः स्वल्पबुद्ध्या संमेताः ॥७॥ ओह श्री मंगलोत्तमशरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यो जमानायम् ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) धियं बुद्धिमनाकूल्य, धर्मप्रीति विवचनम् । गृहिधर्मे स्थिति भूत्वा, श्रेयस मे दिश त्वरा ॥ इत्याशीर्षादः। सिद्ध-पूजा। सिद्धान् विशुद्धावसुकम मुक्तान त्रैलोक्यशीस्थितचिद्विलासान् संस्थापये भावदिशुद्धिदातन् सन्मंगलं प्राज्यसमृद्धयेऽहम् ॥१॥ __ओं ह्री वसुकर्म रहित सिद्ध भ्यः पुष्पांजलि क्षिपामि। ओं ही नीरजसे नमः । ( बल द्वारा भूमि शुद्ध करे) नों ही दर्पमथनाय नमः । जलम् ॥ ओंबी शीलगंधाय नमः । चंदनम् ।। ओं ही अक्षताय नमः। अक्षतान् ॥ओं ही विमलाय नमः। पुष्पम् ॥ ओं ह्रीं परमासद्धाय नमः । नैषधम् ॥ ओं ही ज्ञानोद्योताय नमः । दीपम् ।। ओं ह्रीं श्रुतधूपाय नमः । धूपम् ।। ओं ही अभीष्टफलदाय नमः । फलम् ॥ अष्टकर्म गणनाशकारकान्, कष्टकुडलि मुदष्टगारुडान् । स्पष्टज्ञानपरिमीतविष्टपान, अध्यतोऽषनाशनाय पूजये ॥ ओं ह्रीं श्री वसुकर्म रहितेभ्यः सिद्धेभ्योऽय॑म् । द्वितीय कटनीस्थ श्रुत पूजा। द्वादशांगमाखले श्रुतं मया, स्थाप्य पाणिपरिपीडनोत्सवे । पूज्यते यदधिधर्मसंभवो, द्वैधयैष जमता प्रसीदति ॥१॥ बोंहीं श्री द्वादशांगाश्रुताय अय॑म् । तृतीय कटनीस्थ गुरु पूजा। शुद्धयो बरसादि-विक्रियापध्यमहकमहानसादिकाः ।। यत्कमाबुहबासमासते, तमान् गुरुनामिमहामिपखैः ॥२॥ भोजी श्री मरिधारकपरमर्षिभ्योऽयम । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) धर्म चक्र पूजा अष्टमंगलमिदं पदांबुजे, भासते शतसुमंगलाघदम् । धर्मचक्रमाभिपूजये वरं, कर्मचक्र परिणाशनोद्यतम् ॥ ३॥ ह्रीं श्री धर्मचक्रायार्ध्यम | प्रदान और वरण - यन्त्र की पूजन के पश्चात् कन्या के पिता और मामा, हो सके तो दोनों ही सपत्नीक, यंत्र के सामने हाथ जोडकर खड़े होवें और वर के पिता और मामा भी उनके सामने अर्थात् यंत्र के पीछे खडे हो जावें । गृहस्थाचार्य कन्या के पिता से उनके बाद में मामा से सबके समक्ष कन्या की सम्मति पूर्वक वर के प्रति निम्न प्रकार बाय बुलवावे :- " मैं आपको धर्माचरण में और समाज की एवं देश की सेवा में सहयोग देने के लिए अपनी यह कन्या प्रदान करना चाहता हूं । आप इसे स्वीकार करें। और धर्म से पालन करें । कन्या के पिता और मामा के इस प्रकार कहने पर वर भी यन्त्र को नमस्कार कर कहे कि " मै श्रापकी कन्या को स्वीकार करता हूं। और इसका धर्म से, अर्थ से और काम से पालन करूंगा।" । इस अवसर पर समस्त स्त्री पुरुष वर कन्या पर अपनी अनुमोदना के साथ पुष्पवृष्टि करें। कन्या के पिता झारी या कलशी में जल लेकर घर के सीधे हाथ की कनिष्ठा अँगुली से बांये हाथ की कनिष्ठा अंगुली स्पर्श कराकर उन अंगुलियों पर निम्न प्रकार मन्त्र पढकर जलधारा छोडे । गृहस्था Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com .. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) चार्य पिता से यह मन्त्र कहलावें। " श्रीमद्य जंबूद्वीपे भरत. १ क्षेत्रे आर्यखराडे अमुक नगरे अस्मिन् स्थाने अमुक वीर निर्वाण संवत्सरे अमुक मासे अमुक तिथौ अमुकं वासरे जैन धर्म परिपालकाय अमुक गोत्रोत्पन्नाय अमुकस्य पुत्राय अमुकस्य पौत्राय अमुक नाम्ने कुमाराय जैनधर्म परिपालकस्य अमुक गोत्रोत्पन्नस्य श्रमुकस्य पुत्र अमुकस्य पौत्र अमुक नाम्नीं इमां कन्या प्रददामि । श्र नमोऽईते भगवते श्रीमते वर्धमानाय श्रीषलायुरारोग्य संतानामिवर्धनं भवतु भवींदवीं हूं सः स्वाहा । उक्त प्रदान और वरण की विधि में प्रदान से कन्यादान का मतलब, जैसा कि अन्य संप्रदायों में माना जाता है वैसा यहां नहीं है । कन्या श्रन्य वस्तुनों की भांति दान देने की वस्तु नहीं मानी गई है। यहां तो सिर्फ सबके सामने विवाह की एक विधि मात्र वतलाई है । हवन प्रदान और वरण के पश्चात् हवन के लिए स्थंडिल के. चारों ओर नीचे तीन बार लच्छा लपेटकर उस स्थंडिल पर समिधा जमाई जावे और चारों कोनों के दीपक प्रज्वलित कर कर्पूर वर के हाथ देकर " श्रीं श्रीं ओ ओ रं रं रं रं स्वाहा अग्नि स्थापयामि " इस मंत्र से दीपके द्वारा कैपूर प्रज्वलित कर संमिघा पर रखायें और गृह संथाचार्य घाई से घृत केंपकर संमिधा को ठीक करे । १ अमुक शब्द जहां जहां है वहां जो नाम हो वह लेना चाहिये । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) स्थंडिल पर ही चौकोण तीर्थकर कुंड, गोल गणधर कुंड और त्रिकोण सामान्य केवली कुन्ड की स्थापना कर तीन अर्घ निम्न प्रकार श्लोक पढ़कर घर कन्या से चढ़वावें। श्रीतीर्थनाथपरिनिर्वृतपूज्यकाले, आगत्य बनिसुरपा मुकुटोल्लसद्भिः । बहिबजै जिनपदेहमुदारभक्त्या, देहुस्तदग्निमहमर्चयितुं दधामि ॥१॥ ओं ह्रीं चतुरस्र तीर्थंकरकुण्डे गार्हपत्याऽग्नयेऽयम् । गणाधिपानां शिवथातिकाले ग्नीन्द्रोत्तमांगस्फुरदुअरोचीः । संस्थाप्य पूज्यश्च समाहनीयो,विवाहशांत्यै विधिना हुताशः।। __ओं ह्रीं वृत्ते गणधर कुण्डे अाह्ननीयाग्नयेऽयम। श्री दाक्षिणाभिः परिकल्पितश्च, किरीटदेशात् प्रणताग्निदेवैः । निर्वाणकल्याणकपूतकाले, तमर्चये विघ्न विनाशनाय ॥३॥ ओं ही त्रिकोणे सामान्य केवलिकुण्डे दक्षिणाग्नयेऽयम् । निम्नलिखित पाहूति मन्त्रों का उच्चारण गृहस्थाचार्य करे और वही चाटू से घृत की पाहूति दे । वर और कन्या हाथ को सीधा रखकर मध्यमा और अनामिका अंगुलियों पर साकल्प (हवन द्रव्य) रखकर स्वाहा बोलते हुए पाहूति दें। 28 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) आइति मन्त्र पीठिका मन्त्र ओं सत्यजाताय नमः स्वाहा ॥१ || ओं अहज्जाताय नमः स्वाहा ॥२॥ ओं परमजाताय नमः स्वाहा ॥ ३ ॥ ओं ओं अनुपमजाताय नमः स्वाहा ॥४॥ भों स्वप्रधानाय नमः स्वाहा । || ओं अचलाय नमः स्वाहा ॥६|| ओं अक्षताय नमः स्वाहा ॥७॥ ओं अव्यावाघाय नमः स्वाहा ॥८॥ ओं अमन्तज्ञामाय नमः स्वाहा ॥ ९॥ ओं अनन्तदर्शनाय नमः स्वाहा ॥१०॥ओं अनन्तवीर्याय नमः स्वाहा ॥११॥ ओं अनन्तसुखाय नमः स्वाहा ॥ १२ ॥ ओं नीरजसे नमः स्वाहा ॥१३॥ ओं निर्मलाय नमः स्वाहा ॥१४॥ ओं अच्छेद्याय नमः स्वाहा ॥१५॥ ओं अभेद्याय नमः स्वाहा ॥१६॥ ओं अजराय नमः स्वाहा ।।१७) आ अपराय नमः स्वाहा ॥१८॥ओं अप्रमेयाय नमः स्वाहा ॥ १९ ।। ओं अमर्भवासाय नमः स्वाहा ॥२०॥ ओंअक्षोभाय नमः स्वाहा ॥२१॥ ओं अक्लिीमाय नमः स्वाहा ॥२२॥ ओं परमधनाय नमः स्वाहा ॥२३ ॥ ओं परमकाष्ठायोगरूपाय नमः स्वाहा ॥२४॥ ओं लोकाग्रवासिने नमो नमः स्वाहा ॥ २५ ॥ ओं परम सिद्धभ्यो नमोनमः स्वाहा ॥२६॥ ओं अर्हसिद्धभ्यो नमोनमः स्वाहा ॥२७॥ यो वैजलसिद्धेभ्यो नमोनमः स्वाहा ॥२८॥ ओं अन्तःकृत् सिद्धेभ्यो नमोनमः स्वाहा ॥२६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) ओं परमसिद्धभ्यो नमोनमः स्वाहा ॥३०॥ ओं अनादि पर. म्परासिद्धभ्यो नमोनमः स्वाहा ।। ३१ ।। ओं अनाद्यनुपम सिद्धेभ्यो नमोनमः स्वाहा ॥३२॥ ओं सम्यग्दृष्टे ! सम्य भनाई निर्वाण ग्दृष्टे ! आसनमव्य ! आसन्नमव्य ! निर्वाणपूजार्ह पूजा ! अग्नीन्द्र ? अग्नीन्द्र ! स्वाहा ॥३३॥ इस प्रकार आहूति देकर गृहस्थाचार्य नीचे लिखा काम्यमंत्र पढ़कर एक आहूति दे और वर कन्या पर पुष्प क्षेपे। इसीप्रकार आगे भो करे। मेषाफलं षट्परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशन भवतु । जाति मन्त्र । ओं सत्यजन्मनः शरणं प्रपद्ये नमः ॥१॥ओं अहंजन्मनः शरणं प्रपद्ये नमः ॥२॥ ओं अहेन्मातुः शरण प्रपद्येनमः ॥३ ।। ओं अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्ये नमः ॥ ४ ॥ ऑअनादिगमनस्य शरणं प्रपद्ये नमः ॥ ५॥ओं अनुपमजन्मनः शरणं प्रपद्ये नम ॥६॥ औं रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्ये नमः ।। ७ ।। ओं सम्यग्दृष्टे ! सम्यग्दृष्ट ! ज्ञानमूत ! ज्ञानमूत सरस्वति ! सरस्वति ! स्वाहा ॥८॥ सेवाफलें षट् परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु । निस्तारक मंत्र। ओं सत्यजाताय नमः स्वाहा ।। १ ।। औं अहज्जाताय नमः स्वाहा ॥२।। ओं षट्कर्मणे स्वाहा || ओं ग्रामपतये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) स्वाहा ।.४॥ ओं अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा ॥५॥ ओं स्नातकाय स्वाहा ॥६॥श्रावकाय स्वाहा ॥७॥ ओं देवब्राह्मणाय स्वाहा ||८|| ओं सुब्राह्मणाय स्वाहा || ओं अनुपमाय स्वाहा ॥१०॥ ओं सम्यग्दृष्टे ! सम्यग्दृष्टे ! निधिपते निधिपते ! वैश्रवण ! वैश्रवण ! स्वाहा ॥११॥ सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु। अपमृत्युविनाशनं भवतु । ऋषि मंत्र। ओं सत्यजाताय नमः स्वाहा ॥१ ॥ ओं अर्हज्जाताय नमः ॥२॥ ओं निग्रन्थाय नमः ॥३॥ ओं वीतरागाय नमः ओं महावताय नमः ॥४॥ओं त्रिगुप्तये नमः ॥६॥ओं महायोगाय नमः ॥७॥ आ विविधयोगाय नमः ॥८॥ ओं विवधर्द्धये नमः ॥९॥ ओ अंगधराय नमः ॥१०॥ओं गणथराय नमः ॥१२॥ ओं परमर्षिभ्यो नमः ॥१३॥ ओं अनुपमजाताय नमः ॥ १४ ॥ ओं सम्यग्दृष्टे ? सम्यग्दृष्टे ? भूपते ! भूपते ? नगरपते ? नगरपते ! कालश्रमण! कालश्रमण! स्वाहा ॥१५॥ सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु । अपमृत्यु विनाशनं भवतु । सुरेन्द्र मंत्र। ओं सत्यजाताय नमः स्वाहा ॥१॥ओं महंग्याताय नमः ॥२॥ ओं दिव्यजाताय स्वाहा ॥३॥ ओं दिन्यर्जाि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) ताय स्वाहा ॥४॥ ओं नेमिनाथाय स्वाहा॥५॥ओं सौषमाय स्वाहा ॥६॥ ओंकल्पाधिपतये स्वाहा ॥७॥ ओं अनुचराय स्वाहा ॥ ८॥ ओं परम्परेन्द्राय स्वाहा ॥९॥ ओं अहमिन्द्राय स्वाहा ॥१०॥ ओं परमाईजाताय स्वाहा ॥११॥ ओं अनुपमाय स्वाहा ॥१२॥ ओं सम्यग्दृष्टे ! सम्यग्दृष्टे ! कल्पपपते ! कल्पपपते ! दिष्यमूर्ते ! दिव्यमूर्ते वज्रनामन ! वज्रनामन् ! स्वाहा ॥१३॥ सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु । परमराजादि मन्त्र। ओं सत्यजाताय स्वाहा ॥ १ ॥ओं मर्हज्जातायस्वाहा ॥२॥ ऑ अनुपमेन्द्राय स्वाहा ॥ ३॥ आ विजयार्चिर्जाताय स्वाहा ॥४॥ओं नेमिनाथाय स्वाहा ॥५॥ ओं परमजाताय स्वाहा ॥ ६ ॥ ऑ,परमाईजाताय स्वाहा॥७॥ ओं अनुपमाय स्वाहा ॥८॥ आ सम्यग्दृष्टे ! सम्यग्दृष्टे ! उग्रतेजः ! उग्रतेजः । दिशांजन ! दिशंजन ! नेमिविजय ! नेमिविजय ! स्वाहा ॥९॥ सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु । परमेष्ठि मन्त्र । ओं सत्यजाताय नमः स्वाहा ॥ ॥ ओ महज्बाताय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) नमः ॥२॥ ओं परमजाताय नमः ॥३ ।। ओं परमाईजाताय. नमः ॥४ाओं परमरूपाय नमः ॥५॥ ओं परपतेजसे नमः ॥६॥ओं परममुणाय नमः ।। ७ ॥ ओं परमस्थानाय नमः ॥८॥ परमयोगिने नमः ॥ ९॥ ओं परमभाग्याय नमः ॥१०॥ ओं परमद्धये नमः ॥११॥ ओं परमप्रसादाय नमः ॥१२॥ ओं परमकांक्षिताय नमः ॥१३॥ ओं परमविजयाय नमः ॥१४॥ ओं परमविज्ञानाय नमः ॥१५॥ ओं परमदर्शनाय नमः ॥१६॥ओं परमवीर्याय नमः ॥१७॥ ओं परमसुखायनमः ॥१८॥ ओं परमसर्वज्ञाय नमः ॥१९॥ ऑ अर्हते नमः ॥२०॥ ओं परमेष्ठिने नमः ॥२१॥ ओं परमनेत्रे नमो नमः ॥२२॥ ओं सम्यग्दृष्टे ! सम्यग्दृष्टे ! त्रैलोक्यविजय ! त्रैलोक्यविजय ! धर्ममूर्ते ! धर्ममूर्ते ! धर्मनेमे ! धर्मनेमे ! स्वाहा ॥२३॥ सेवाफलं षट् परमस्थानं भवतु । अपमृत्युविनाशनं भवतु । आहूति मंत्र। ओं हां अहद्भयः नमः स्वाहा ॥१॥ ओंगी विलम्यः स्वाहा ॥२॥ओं हं श्राचार्येभ्यः स्वाहा ॥३॥ओं उपाध्यायेभ्यः स्वाहा ॥ ४॥ओं हः सर्वसाधुभ्यः स्वाहा ॥५॥ ओं ही जिनधर्मेभ्यः स्वाहा ॥ ६ ॥ ओं ही जिनागमेभ्यः स्वा ॥७॥ आ ही विमपैत्योपः महा.आ ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) सम्यग्दर्शनाय स्वाहा ॥Ens ह्रौं सम्यग्ज्ञानाय स्वाहा ॥१०॥ ओं ह्रीं सम्यक्चारित्राय स्वाहा ॥११॥ शांति मन्त्र । ओं ह्रीं अहं असि आ उ सा नमः सर्व शांति कुरु कुरु स्वाहा। इस मन्त्र की १०८ बार या कमसे कम २७ बार माहूति दें। - इसके पश्चात् निम्न प्रकार सप्तपदी पूजा करावे । सप्तपदी पूजा । सज्जातिगार्हस्थ्य-परित्रजवं, सोरेन्द्रसाम्राज्य-जिनेश्वरत्वम् । निर्वाणकं चेति पदानि सप्त, भक्त्या यजेऽहं जिनषादपदनम् ।। _____ओं ह्रीं श्री सप्तपरयस्थानेभ्यः पुष्पांजलि सिपामि। विमलशीतलसज्जलधारया, सविधवन्धुरशीकरसारया । परमसप्तसुस्थानस्वरूपकं परिभजामि सदाष्टविधार्चनैः ॥१॥ ___ओं ही श्री सप्तपुरमस्थानेभ्यो जलम् । मसृणंकुकुमचन्दनसद्वैः, सुरभिवागतषट्मदसौः परम.॥ _____ओं ही श्री सप्तपरमस्थानेभ्यः चन्द्रनम् IRR .:. विजुलनिर्मलतंदुलसंचयः,कृतभुमौक्तिककपकनिस्वयःवरम.॥ ___ओं ह्रीं श्री सप्तपरमस्थानेभ्योऽक्षतान् ॥३॥ कुसुमंचपक-पंकजकुदकैः,सहजजाति-सुगा विमोद मरम॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) सकललोकविमोदनकारकैः,श्चरुवरैःसुसुधाकृतिधारकः परमः। ओ ह्रीं श्री सप्तपरमस्थानेभ्यो नैवेद्यम् । तरलतारसुकांतिसुमुण्डनैः, सदनरत्नचरघखण्डनैः ॥परम. ओ ही श्री सप्तपदस्थानेभ्यो दीपम् । अगुरुधूपभवेन सुगंधिना, भ्रमरकोटिसमेन्द्रियबंधिना ॥परमः॥ परमसप्तसुस्थानस्वरूपकं, परिमजामि सदाष्टविधार्चनैः ।। ओ ह्रीं श्री सप्तपदस्थानेभ्यो धूपम् । सुखदपक्वसुशोभनसत्फलैः क्रमुकनिंबुकमोचसुतांगतैः॥परम.॥ ओ ह्रीं श्री सप्तपदस्थानेभ्यो फलम् । जिनवरागमसदगुरूमुख्यकान्, प्रवियजे गुरुसदगुण मुख्यकान् । मुशुभचन्द्रतरान् कुसुमोत्करैः समयसारपरान्पयसादिकः ॥६॥ ओ ह्रीं श्री सप्तपदस्थानेभ्योऽयम्। गठजोड़ा। हवन और सप्तपदी पूजा के बाद जीवनपर्यन्त पतिपत्नी बनने वाले दम्पती में परस्पर प्रेमभाव का एवं लौकिक और धार्मिक कार्यों में साथ रहने का सूचक ग्रंथिबम्धन ( गठजोडा )किसी सौभाग्यवती (मुहागिनी) स्त्री के द्वारा कराना चाहिए। कन्या लुगडी (साडी) के पल्ले में १ चुभत्री, १ सुपारी, हल्दीगंठ, सरसों वा पुष्प रखकर उसे बांध ले और उससे वर के दुपट्टे के पल्ले को वांधदे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) ग्रंथिबन्धन मंत्र । श्रस्मिन् जन्मन्येष बन्धो द्वयोर्ते, कामे धर्मे वा गृहस्थत्वभाजि । योगो जातः पंचदेवाग्नि साक्षी, जायापत्त्योरंचल ग्रंथिबंधात् ॥ हथलेवा (पाणिग्रहण) । गठजोडा के पश्चात् कन्या के पिता कन्या के बांये हाथ में और वर के सीधे हाथ में पिसी हुई हल्दी को जल से रकाबी में घोलकर लेपे । लोक में जो पीले हाथ करने की बात कही जाती है यह वही बात है । फिर वर के सीधे हाथ में थोडी सी गीली मेंदी और १ चुमन्नी रख उसपर कन्या का बांया हाथ रखकर वर कन्या के दोनों हाथ जोड़ दे । इस विधि से कन्या का पिता अपनी कन्या को वर के हाथ में सौंपता है । इसे पाणि ग्रहण भी कहते हैं । ..¿¿ पाणिग्रहण मंत्र | हारिद्रपंकमवलिप्य सुवासिनीभिदेतं द्वयोर्जनकयोः खलु तौ गृहीत्वा । वामं करं निजसुतावमा पाणिम् लिम्पेद्वरस्य च करद्वययोजनार्थम् ॥ फेरे और सप्तपदी । हथलेवा के बाद वर कन्या को खड़ा करके कन्या को नाये और वर को पीछे रखकर वेदी में चारी के बध्य में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) यन्त्र सहित करनी और हवन की प्रज्वलित अग्नि युक्त स्थं. डिल के चारों ओर छः फेरे दिलवावें । इस समय स्त्रियां फेरों के मंगल गीत गावे । वर और कन्या के कपड़ों को संग लते हुए फेरे दिलाना चाहिए । एक दो समझदार स्त्री और पुरुष दोनों को संभालते रहे। छ: फेरों के बाद कन्या अपने पूर्व स्थान पर पहले के समान बैठजावें । गृहस्थाचार्य निम्नप्रकार सात सात बचनों (प्रतिक्षाओं) को कम से पहले वरसे और फिर कन्या से कहलवावे साथ ही स्वयं उनको सरल भाषा में समझाता जाय । वर की ओर से कन्या के प्रति ७ वचन । (१) मेरे कुटुम्वी लोगों का यथायोग्य विनय सत्कार करना होगा। (२) मेरी आज्ञा का लोप नहीं करना होगा ताकि घर में अनुशासन बना रहे। (३) कठोर बचन नहीं बोलना होगा। क्योंकि इससे चित्त को क्षोभ होकर पारस्परिक द्वेष होजाने की संभावना रहती है। (४) सत्पात्रों के घर पर मानेपर उन्हें आहार आदि प्रदान करने में कलुषित मन नहीं करना होगा। (५) मनुष्यों की मी प्रादि में जहां धक्का मादि लगने की संभावना हो वहां विना खास कारण के भो नहीं जाना होगा। (६) दुराचारी और नशा करने वाले लोगों के घर पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) नहीं जाना होगा जिससे ऐसे व्यक्तियों द्वारा अपने सम्मान में बाधा न आ सके । (७) रात्रि के समय बिना पूछे दूसरों के घर नहीं जाना होगा ताकि लोगों को व्यर्थ ही टीका टिप्पणी करने का मौका न मिले ! ये सात प्रतिज्ञायें तुम्हें स्वीकार करना चाहिए | इन बचनों में गाईस्थ्य जीवन को सुखद बनाने की बातों का ही उल्लेख है । इनके पालन से घर में और समाज में पत्नी का स्थान आदरणीय बनेगा । इन प्रतिज्ञाओं को कन्या अपने मुंह से निसंकोच होकर कहे और स्वीकार करे । कन्याद्वारा वर के प्रति सात वचन | (१) मेरे सिवाय अन्य स्त्रियों को माता, बहन और पुत्री के समान मानना होगा अर्थात् परस्त्री सेवन का त्याग और स्वस्त्रीसंतोष रखना होगा। (२) वेश्या, जो परस्त्री से भित्र मानी जाती हैं उसके सेवन का त्याग करना होगा । (३) लोक द्वारा निंदनीय और कानून से निषिद्ध द्यूत (जुना) नहीं खेलना होगा । (४) न्याय पूर्वक धन का उपार्जन करते हुए वस्त्र आदि से मेरा रक्षण करना होगा । (५) आपने जो अपने बचनों में मुझसे अपनी प्रशा मानने की प्रतिज्ञा कराई है उस संबन्ध में धर्मस्थान में जाने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) और धर्माचरण करने में रुकावट नहीं डालनी होगी। (६) मेरे संबन्ध की और घर की कोई बात मुझसे नहीं छिपानी होगी क्योंकि मैं भी आपकी सच्ची सलाह देने वाली हूं। कदाचित उससे आपको लाभ होजाय और अपना संकट दूर हो जाय । साथ ही इससे परस्पर विश्वास भी बडेगा। (७) अपने घर की गुप्त वात दूसरे के याने मित्र आदि के समक्ष प्रकट नहीं करनी होगी। लोगों को मनोवृत्ति प्रायः यह होती है कि वे दूसरे घर की छोटी सी बात 'तिलका ताड' की उक्ति के समान बडी करके अपवाद फैलादेते हैं। इन सात प्रतिज्ञाओं को घर स्वीकार करे । इनके सिवा और भी कोई खास बात हो तो विवाह के पहले स्पष्ट कर लेना चाहिए । जिससे दाम्पत्य जीवन आजीवन आनन्द पूर्वक व्यतीत हो । सच यह है कि अपने साफ और शुद्ध परिणाम (नियत) ही से संबन्ध अच्छा रह सकता है । सप्तपदी के पश्चात् वर को श्रागे करके सातवां फेरा गया जाय और अपने पहले के स्थान पर जन आवें तब वे पति पत्नी के रूप में होकर याने स्त्री पति के बांये ओर और पति स्त्री के दाहिने ओर बैठे। इस अवसर पर खियां मंगलगीत गावें। * अग्रवाल जाति में जैन व अजैन में तथा हुमड़ जाति में श्वेताम्बर और दिगम्बर में परस्पर विवाह होता है अतः यह प्रतिज्ञा आवश्यक है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) उक्ल सात फेरे या मांवर सात परम स्थानों की प्राप्ति के द्योतक हैं । भागमानुसार संसार में (१) सज्जातित्व (२) सद् गृहस्थत्व (३) साधुत्व (४) इन्द्रत्व (५) चक्रवर्तित्व (६) तीर्थकरत्व और (७) निर्वाण ये सात परमस्थान माने गये है। सात फेरे होने पर नवदम्पति पर निम्नप्रकार मन्त्र द्वारा पुष्प क्षेपण करे। “ओं हां ही इ. होहः असि आ उ सा अहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधवः शांति पुष्टिं च कुरुत कुरुत स्वाहा"। यहांपर संक्षेप में गृहस्थ जीवन के महत्व पर उपदेश देकर अच्छी संस्थाओं को यथाशक्ति दोनों पक्ष की ओर से दान की घोषणा कराकर तत्काल यथास्थान मिजवाने का प्रबन्ध करा देना चाहिए । - इसके बाद कन्यापक्ष की ओर से वर को तिलकपूर्वक १) एक रुपया और श्रीफल भेंटकर हथलेवा छुड़ा देना चाहिए और नवदम्पति खडे होकर मंगलकलश को हाथ में खेल। गृहस्थाचार्य पुण्याहवाचन पाठ पढे । और सर्वशांतिर्भवतु वाज्य के आने पर नीचे एक पात्र में जलधारा स्वयं छोडता जाय और नवदम्पति से धारा छुडाता जाय । पुण्याहवाचन । ओम् पुण्याहं पुण्याहं । लोकोद्योतनकरातीतकाल संजातनिर्वाणसागरमहासाधुविमलप्रभशुद्धप्रमश्रीधरसुदचामलप्रमोदरामिसंयमशिवकमुखांजलिशिवमणोत्साहज्ञानेश्वरपरमेश्वरविमलेश्वरयशोधरकृष्णमतिज्ञानमतिशुदमतिबीमद्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) शान्तेति चतुर्विशतिभूतपरमदेवभक्तिप्रसादात्सर्वषांशांति मवतु । ओम् सम्प्रतिकालश्रेयस्करस्ववितरणजन्माभिषेकपरिनिष्क्रमण केवलज्ञाननिर्वाणकन्याणकविभूति-विभूपित महाभ्युदय श्रीवृषभाजितसंभवाभिनन्दनमुमतिपदमप्रभसुपार्श्वचन्द्रप्रभपुष्पदंतशीतलश्रेयोवासुपूज्यविमलानन्तधर्मशांति कुन्थ्वरमल्लि-मुनिसुव्रतनमिनेमिपाश्ववर्द्धमानेतिचतुर्विशतिवर्तमानपरमदेव भक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु । ' ओमभविष्यत्कालाभ्युदयप्रभवमहापद्मसूरदेवसुप्रभस्वयं प्रभसर्वायुधजयदेवोदयदेवप्रभादेवोदकदेवप्रश्नकीर्तिपूर्णबुद्धनिष्कषायविमलप्रभवहलनिमलचित्रगुप्तसमाधिगुप्तस्वयंभू- . कंदर्पजयनाथविमलनाथदिव्यवादानन्तवीर्येतिचतुर्विशतिभविष्यत्परमदेवभक्तिप्रसादात्सर्वशांतिभवतु । ओत्रिकाल वर्तिपरमधर्माभ्युदयसीमंधरयुग्मंधरवाहु-- सुबाहुसंजातकस्वयंप्रभऋषभेश्वरानन्तवीर्य विशालप्रमवज्रधर महाभद्रजयदेवाजितवीर्येतिपंचविदेहक्षेत्रविरहमाणविंशतिपरमदेवभक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्मवतु ओम् वृषभसेनादिगणवरदेव भक्तिप्रसादात्सर्वशांति .ओम् कोष्ठबीजपादानुसारि दिमित्रोवप्रज्ञाश्रमण भक्तिप्रसादात्सर्वशांतिभवतु ।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) ओम् बलफलजंघातंतुपुष्पवेषिपत्राग्निशिखाकाशचारणभक्तिप्रसादात्सर्वशतिभवतु । . ओम् अहाररसवदक्षीणमहानसालय भक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु । ओम् उग्रदीप्ततप्तमहाघोरानुमतपोऋद्धिक्तिप्रसादात्सर्वशांतिमवतु । ओम् मनोवाक्कायवलिभक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु । ओम् क्रियाविक्रियाधारिभक्तिप्रसादात्सर्वशांतिभवतु । ओम् मतितावधिमनः पर्ययकेवलज्ञानि भक्तिप्रसादासर्वशांतिर्भवतु । ओम् अंगांगवाह्यज्ञानदिवाकर कुन्दकुन्दाबनेकदिगम्बरदेवभक्तिप्रसादात्सर्वशांतिर्भवतु । शांतिधारा इह वान्य नगरग्रामदेवताभनुजाः सर्वे गुरुभक्काः जिरधर्मपरायणा भवन्तु । .. . दानतपोवीनुष्तस्तं विलसेवाख । . . मातृपितधातपुत्रपात्रकसहलसबनसम्बंधिवन्धुसहितस्य अमुकस्य ते वन्य पावलवसतियशः प्रमोदोत्सवाः प्रवर्द्धन्ताम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुष्टिरस्तु । पुष्टिरस्तु । बृद्धिरस्तु । कल्याणमस्तु । अविनमस्तु । आयुष्यमस्तु । प्रारोग्यमस्तु । कर्मसिद्धरस्तु इष्टसंपत्तिरन्तु । निर्वाणपासवाः सन्तु । पापनि शाम्यन्तु पुण्यं वर्धताम् । श्रीद्धताम् । कुलंगोत्रंचामिवर्धेताम् । स्वस्ति भद्रं चास्तु । मवीं वीं हं सः स्वाहा । श्रीमजिनेन्द्र चरणारविंदेवानदभक्तिः सदास्तु । पुण्याहवाचन के बाद नीचे लिखा शांतिस्तव या शांतिपाठ (शांति जिनं शशि निर्भलवक्त्रमित्यादि) षढे । शांतिस्तव। चिदूपभावमनवद्यमिमं त्वदीयं । घ्यायति ये सदुपधिव्यतिहारमुक्तं ॥ नित्य निरंजनमनादिमतरूपं । तेषां महांसि भुवनत्रितये लसति ॥१॥ ध्येयस्त्वमेव भवंपचतयप्रसार, निर्णाशकारणविधौ निपुणत्वयोगात् ।। मात्मप्रकाशकृतलोकतदन्यभाव, पर्यायविस्फुरणकृतपरमोऽसि योगी ॥२॥ त्वनाममंत्रधनशुद्धतजन्मजात । दुःकर्मदायमीमशम्य शुमांकरावि ॥ वापादयत्यतुलमक्तिसमृद्धिमानि । स्वामिनतोऽसि शुमदः शुमकत्वमेव ॥३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) त्वत्पादतामरसकोषनिवास्मास्ते । चिचद्विरेफसुकती मम यावदीन ।। बावच्च संसृतिजकिल्विषतापशापः । स्थानं मयि चणमपि प्रतियानि कश्चित् ॥४॥ त्वन्नाममंत्रमानशं रसनाप्रतियस्यास्ति मोहमदघूर्णन नाशनहेतु । प्रत्यूहराजिलगणोद्भवकालकूटमीतिहि तस्य किमुसंनिधिमेति देव ॥५॥ तस्मात्वमेव शरण तरणं भवान्धी, शांतिपदः सकलदोषनिवारणेन । जागर्ति शुद्धमनसा स्मरतोयतो मेशांतिः स्वयं करतले रमसाम्युपैति ॥६॥ जगति शांतिविवर्धनमंहसां, प्रलयमस्तु जिनस्तवनेन मे। सुकृतबुद्धिरलं धमयायुतो, जिवषो हृदये मम वर्तताम् ॥७॥ इसके बाद निम्नलिखित मन्त्र व पद्य से विखजन करे। ओं हां ही ह हौं हः असि आ उ सा महंवादिपरमेष्ठिनः स्व स्थानम् गच्छन्तु गच्छन्तुजः जः जः अपराध क्षमापणं भवतु । मोह ध्यांतविदारणं विशद विश्वदासि दीप्ति श्रियम् । सन्मार्ग प्रतिभासक विबुषसंदोहामृतापादकम् ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) श्रीपादं जिनचन्द्रशांति शरण सद्भक्तिमानेऽपि ते। . भूयस्तापहरस्यं देव भवतो भूयात्पुनदर्शनम् । वृहस्थाचार्य निम्नलिखित श्लोक पढ़कर वर वधू को पुष्पवृष्टि द्वारा आशीर्वाद दे। अारोग्यमस्तु चिरमायुरथो शचीव ।, शक्रस्य शीतकिरणस्य च रोहणीव ॥ मेघेश्वरस्य च सुलोचनका यथेषा, भूयात्तवेप्सित सुखानुभवधिधात्री ॥१॥ आरती। बर की सास हाथ में दीपक लेकर वर को तिलक करके भारती करे। इसके पहले खंडेलवालों में पगडी भी बधाई जाती है । पश्चात् वर वधू को मंगल गीत पूर्वक विदा करे । विवाह के दूसरे दिन वर वधू मंदिर के दर्शन करें। इस समय पंचायत (गोड) की ओर से जो सोलाणा में ध्वजा आदि के नामपर रकम ली जाती है वह यथाशक्ति ही लेना चाहिए । पश्चात् यदि विनायक यंत्र घर में स्थापित किया हो तो विनय पूर्वक मंदिर में विराजमान कर देना चाहिए । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) परिशिष्ट शाखाचार । पहिले वर पक्ष की तरफ से फिर कन्या पच की तरफ से । दोहा । वन्दों देव युगादि जिन, गुरु गणेश के पांय | सुमरूं देवी शारदा, ऋद्धि सिद्धि वरदाय ॥१॥ अब आदीश्वर कुमर को, सुनियो व्याह विधान । विधन विनाशन पाठ हैं, मंगल मूल महान ||२|| इस ही भारत क्षेत्र में, आज खंड मंकार | सुख सो बीते तीन युग, शेष सयय की वार ॥३॥ चौदह कुलकर अवतरे, अंतिम नाभि नरेश | सब भूपन में तिलक सम, कौशलपुर परवेश ॥ ४ ॥ मरुदेवी राणी प्रगट, शुभ लक्षण आधार । तिनके तीर्थंकर मये, प्रथम ऋषभ अवतार ॥५॥ स्वामि स्वयंभू परम गुरु, स्वयं बुद्ध भगवान । इन्द्र चन्द्र पूजत चरण, आदि पुरुष परिमान ॥ ६ ॥ तीन लोक ताश्म तरन, नाम विरद विख्यात । गुण अनन्त श्राधार प्रभु, जग नायक जगतात ॥७॥ जन्मत व्याह उछाह में, शुभ कारंज की यादि । पहिले पूज्य मनाइये, विनशे विधन विनाश ॥८॥ www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) सकल सिद्धि सुख संपदा, सब मनवांछित होय । तीनलोक तिहुंकाल में, और न मंगल कोय ।।६।। इस मंमल को भूलि के, कर और से प्रीति । ते अजान समझ नहीं, डत्तम कुल की रीति ॥१०॥ नाभि नरेश्वर एक दिन, कियो मनोरथ सार । आदि पुरुष परणाइये, बोले सुबुद्धि विचार ॥११॥ अहो कुमर तुम जगत गुरु, जगत्पूज्य गुणधाम । जन्प योग लोक सब, कहें हमें गुरु नाम ॥१२॥ तातें नहीं उलंघने मेरे बचन कुमार । ब्याह करो आशा मरो, चलै गृहस्थाचार ॥१३ ।। सुन के बचन सुतात के, मुसकाये जिन चन्द । तव नरेश जानी मही, राजी ऋषभ जिनंद ॥१४॥ बेटी कच्छ सुकच्छ की, नन्द सुनन्दी नाम । अगुण रूप गुण आगरी, मांगी बहु गुण धाम ॥१५॥ उभय पक्ष आनन्द भयो, सब जग बढ्यो उछाह । लग्न महूरत शुम घडी, रोप्यो ऋषभ विवाह ॥१६॥ खान पान सन्मान विधि, उचित दान प्रकाश । संतोषे पोषे खजन, योग्य वचन मुख भास ॥१७॥ गज तुरंग वाहन विविध, पनी बरात अनूप । रथ में राजत ऋषम जिन, संग बराती भूप ॥१८॥ नाचे देवी अपसरा, सन, रस पोर्षे, सार। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) मंगल गावें किन्नरी, देव करें जयकार ॥१६॥ मंगलीक बाजे बजें, वहुविधि श्रवण सुहाहि । नरनारी कौतुक निरख, हर्षे अंगन माहिं ॥२०॥ श्रादि देव दून्हा जहां, पायन इन्द्र महान । तिसे बरात महिमा कहन, समरथ कौन सुजान ॥२१॥ आगे आये लेन को, कच्छ सुकच्छ नरेश । विविध मेंट देके मिले, उर आनन्द विशेष ॥२२॥ रतन पौल पहुंचे ऋषभ, तोरण घंटा द्वार । रतन फूल वरखें घने, चित्र विचित्र अपार ॥२३॥ चौरी मंडप जगमगे, बहुविधि शोमे ऐन । चारों दिश चिलके परे, कंचन कलश अरु बैन ॥२४॥ मोती झालर झूमका, झलके हीरा होर । मानो मानन्द मेघ की, झरी लगी चहुओर ॥२५॥ वर कन्या बैंठे महां, देखत उपजे प्रीत । पिक बैनी मृग लोचनी, कामिन गावें गीत ॥२६॥ कन्यादान विधान विधि, और उचित आचार । यथायोग्य व्यवहार सब, कीनों कुल अनुसार ॥२७१ इह विधि विवध उछाह सोनोगापार कीनी सम्जन बीमती शोमा दिये श्रार ॥२८॥ हर्षित नाभि नरेश मन, हषित कच्छ सुकन्छ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरुदेवी आनन्द थयो, हर्षे परिजन पच्छ ॥२६॥ यह विवाह मंगल महा, पढत बढत आनन्द । सवको सुख संपति करो, नाभिराय कुलचन्द ॥३०॥ वंश वेल बाढे सुखद, बरै धर्म मर्याद । वर कन्या जीवे सुथिर, ऋषभदेव परसाद ॥३१॥ उक्त शाखाचार कन्या प्रदान की विधि के समय अग्रवाल आदि जातियों में बोला जाता है । इसके साथ अग्रवालों में दोनों पक्ष की ओरसे सात सात पीढी के नाम बताकर वर कन्या की मंगल-कामना की जाती है। विशेष ज्ञातव्य । (१) विवाह के दिन कन्या के रजस्वला होजाने पर कन्या से पांचवें दिन पूजन व हक्न आदि विवाह की विधि कराना चाहिए। (२) नवदेव पूजन में बत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय सर्व साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य, और जिनालय ये ६ देवता हैं। (३) गुरु पूजा में ऋद्धियों की स्थापना के लिए “ों बुद्धि चारण विक्रियोषधतपोषलारसाक्षीणमहानसचतुःषष्ठि ऋद्धिभ्यो नमः" यह मन्त्र कागज पर केसर से लिखकर नीचे की करनी पर रख देना चाहिए। (४) विवाह प्रारमपरमा पश्चात् बर और कन्या को परस्पर मुहासोकर परवा शालानुसार और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) अनेक प्रकार की आशंकाओं को दूर करने की दृष्टि से अच्छा है I विवाह के मुहूर्त निकालने आदिमें और अन्य ग्रहादिदोष को दूर करने के लिए जो पीली पूजा आदि शांति के उपायअन्य ज्योतिषी बताते हैं उनके उपाय जैनशास्त्रानुसार ही करना चाहिए | नवग्रह विधान के अनुसार विवाह के समय जिनेन्द्र पूजा करा देना चाहिए और विशेष करना हो तो नवग्रह मंडल मंडाकर “ श्रीं ह्रीं अर्ह असि आउ सा नमः सविघ्न शांतिं कुरु कुरु स्वाहा इस मन्त्र की ग्रह के हिसाब से यथाशक्ति जाप्य करा देना चाहिए । ," घर की ओर से कन्या के प्रति ७ बचनों में (पृष्ठ ३४ पर) छठे और सातवें बचन के भीतर परपुरुषगमन का त्याग सामिल है । ये प्रतिज्ञायें इसी दृष्टि से कराई गई हैं। (७) बिनायक यन्त्र पूजा ( पृष्ठ १६ ) आदि के प्रारम्भ में यन्त्राभिषेक और आह्वानन आदि विनय और शुद्धि को ख्याल में रखकर ही नहीं लिखे गये हैं । इसीप्रकार विनायक यन्त्र पूजाकी जयमाला (पृ. २१) में चौथा पांचवा पद्य समयानुसार कम कर दिया है । नव दम्पति के प्रति । आप दोनों गार्हस्थ्य जीवनमें प्रविष्ट हुए हैं। अपने मानव जीवन को पवित्र और सफल बनाने के लिए ही यह क्षेत्र आपने चुना है । इसको आनन्द पूर्ण और सुखमय बनाना आपके ही ऊपर निर्भर है। यह केवल इंद्रिय भोग मायने के लिए नहीं, वरन् संयम पूर्वक सदाचार और शीड की साधना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) के उद्देश्य से आपने अंगीकार किया है । आप दोनों एक दूसरे के प्रति तो जवाबदार तो हैं ही,पर स्वधर्म,स्वसमाज की और स्वदेश की सेवा का दायित्व मी पाप पर आपड़ा है। यह गृहस्थका भार बहुत बड़ा और अनेक संकटोंसे युक्त है। गृहस्थ अवस्था में आनेवाली अनेक आपत्तियों से घबराकर गृह-विरत होजाने के बहुत उदाहरण मिलेगें। परंतु हमें प्राशा है आप जीवन की हरेक परीक्षा उत्तीर्ण होंगे। समस्त कठिनाइयों को कर्मयोगी बनकर सहन करते हुए उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर दृढ रहना आपका कर्तव्य होगा। पुराणों में उल्लिखित जयकुमार-सुलोचना, राम-सीता या अन्य किसी के दाम्पत्य जीवन के आदर्श को आप अपने सामने रखें हमारी यह शुभ कामना है कि उन्हीं के समान भावी पीढी आपका भी उदाहरण अपने समक्ष रखे। आप दोनों यौवन के वेग में न बहकर अपने कुल के सम्मान का झ्याल रखते हुए गौरवमय यशस्वी जीवन व्यतीत - करें। आपका व्यवहार न्याय्य एवं नैतिकतापूर्ण हो। पति का कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी को सहयोगिनी मानकर उसे ऊचा उठाने के साधन सदा. जुटाता रहे और पत्नी पति के हर कार्य को सफल बनाने में पूरा योग देती रहे। दोनों भौतिकता में न लुमाकर आध्यात्मिकता के रहस्य को समझे-इसी में उन्हें यथार्थ सुख और शांति प्राप्त होगी। इसके लिए प्रीतिदिन सामायिक और स्वाध्याय आवश्यक है हमारी हार्दिक मंगल कामना है कि मापकी यह जोडी दीघ काल तक बनी रहे। संपादक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर निर्वाणोत्सव नई बही मुहूर्त विधि। जिससमय अधर्म बदरहा था, धर्मके नामपर असंख्य पशुओं को यज्ञकी बलिवेदीपर होमा जाता था,संसारमें अज्ञान छारहा था और जब संसारके लोग आत्मा के उद्धार करनेवाले सत्य मार्ग को भूल रहे थे, ऐसे भयंकर समय में जगत के प्रालियों को सत्यमार्ग दर्शने, दुःख पीडित विश्व को सहानुभूति का अंतिम दान देने और सार्वभौमिक तथा स्वाभाविक परमधर्म का सत्य सन्देश सुनानेके लिये इस पुनीत भारत वसुन्धरा पर आज से २५४९ वर्ष पहिले कुन्डलपुर में भगवान महावीर ने जन्म घारण किया था तेईसचे तीर्थकर श्री पार्श्वनाथजी के २५६ वर्ष ३॥ माह वाद भगवान महावीर का जन्म हुआ था। अपने दिव्य जीवन में उन्होंने अहिंसा, विश्वमैत्री और आत्मोद्धार का उत्कृष्ट शादर्श उपस्थित किया था और मम्त में अपने चरम लक्ष्य को स्वयं दृढ निकाला था । भगवान महाबीर ने ब्रह्मचर्य के आदर्श को उपस्थित करने के लिये आजन्म ब्रह्मचारी रहते हुए दुर्घर तप धारण कर ४२ वर्ष की उम्र में ही आत्मा के प्रबल शत्रु चार घातिया कर्मों का नाश कर लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त कर लिया और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) भव्य जीवों को दिव्य ध्वनिद्वारा आत्मा के उद्धार का मार्ग बताया। ७२ वर्ष की उम्र के अन्त में श्री शुभ मिती कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के अन्त समय (अमावस्या के अत्यन्त प्रातःकाल ) स्वाति नक्षत्र में मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त किया। उसी समय भगवान के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और देवों ने रत्नमयी दीपकों द्वारा प्रकाश कर उत्सव मनाया तथा हर्ष के सूचक मोदक (नैवेद्य) आदि से पूजा की तब से इन दोनों महान् अात्माओं की स्मृतिस्वरूप यह निर्वाणोत्सव समस्त भारतवर्ष में .मनाया जाता है। परन्तु वर्तमान में इस उत्सव को भिन्न भिन्न तरीकों से लोग मानते हैं । और उसमें गणेश (जिसका तात्पर्य प्रणधर गौतम स्वामी से था) की पूजा करते हैं, तथा अन्य देव की कल्पना करते हैं । इसी प्रकार लक्ष्मी ( जिसका मतलब मोक्ष लक्ष्मी केवलशान लक्ष्मी से था) को धन संपत्ति की अधिपठात्री देवी समझकर रुपयों की पूजा करते हैं। तथा इसी पवित्र दिन में जूना आदि अनीतिमूलक कार्य करते हैं। ये सब मिथ्यात्व को पोषण करने वाली अधार्मिक प्रवृत्तियां हैं । इन सब कुरीतियों को दूर कर जैनशास्त्रानुसार खम्यग्दर्शन को पुष्ट करने वाली क्रियाओं द्वारा विशेष उत्साह पूर्वक दीपावला मनाना चाहिये, जिससे धार्मिक भाव सदा जागृत रहें। इस उपर्युक्त उद्देश्य को बहुतसे सज्जन जानकर भी लक्ष्मी (रुपयों पैसे) की पूजा करते हैं,यह उनकी नितांत भूल है । हम यह जानते हैं कि वे व्यापारी है और व्यापार विषयक लाभ की आकांक्षा से वे ऐसा करते होंगे। किन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) उन्हें यह वास्तविक रहस्य मालूम कर लेना चाहिये कि जो धन का लाभ होता है वह अन्तराय कर्म का क्षयोपशम से होता है । अन्तराय कर्म का क्षयोपशम शुभ कियाओं से हो सकता है । मिथ्यात्व वर्द्धिनी क्रियाओं से नहीं होता है। दीपमालिका के रोज प्रातःकाल उठकर सामायिक, स्तुति पाठ कर शौच स्नानादि से निवृत हो श्री जिनमंदिर में पूजन करना चाहिये और निर्वाण पूजा, निर्वाणकांड, महावीराष्टक, बोलकर निर्माण लाडू चढाना चाहिये । नई बहियों के मुहूर्त की विधि । . सायंकाल को उत्तम गोधूलिक लग्न में अपनी दुकान के पवित्र स्थान में नई बहियोंका नवीन संवतसे शुभमुहूर्त करें, उसके लिये ऊंची चौकी पर थाली में केशर से 'ओं श्री महावीराय नमः, लिखकर दूसरी चौकी पर शास्त्रजी विराजमान करें और एक थाली में साथियां माडकर सामग्री चढ़ाने के लिये रखें । अष्टद्रव्य जल, चन्दन,अक्षत,पुष्प,नैवेद्य, दीप,धूप, फल, अर्घ्य बनावें । बहियां,दवात,कलम आदि पास में रखले दाहिनी ओर घी का दीपक, बांई ओर धूपदान रहना चाहिये।दीपक में घृत इस प्रमाण से साला जाय कि रात्रि भर वह दीपक जलता रहे। इस प्रकार पूजा प्रारम्भ करें। पूजा करने के लिये कुटुम्बियों को पूर्व या उत्तर में बैठाना चाहिए। पूजा गृहस्था चार्य से या स्वयं करना चाहिए। सबसे प्रथम पूजन में बैठे हुए सर्व सज्जनों को तिखक लगाना चाहिये, उस समय यह श्लोक पढ़ें। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) श्लोक । मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधास्तु मंगलम् ॥ पश्चात् पूजा प्रारम्भ करें। अहंतो भगवन्त इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धीश्वराः । प्राचाया जिन शासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः ।। श्रीसिद्धांतसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधारकाः । पंचतेपरमेष्नि: प्रतिदिन कुर्वन्तु नः मंगलम् ॥२॥ ओं जय जय जय, नमोऽस्त नमोऽस्त नमोऽस्त । णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं णमो णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । चत्तारि मंगल अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलि पएणतोधम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुसमा, अम्हंतलोगुत्तमा, सिद्धलोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपएणतो धम्मोलोगुत्तमा, चत्तारिसरणं पध्वजामि, अरहंतसरणं पव्वजामि, सिद्धसरण पव्वजामि, साहूसरणं पन्वजामि, केवलिपएणतो धम्मोसरण पब्वजामि । (ओं अनादिमूलमत्रभ्यो नमः ) । (यह पढ़कर पुष्पांजलि क्षेपण करें) श्री देव शास्त्र गुरुपूजा का अर्घ । जल परम उज्जल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूं । वर धूप निरमल फल विविध बहु जनम के पातक हरू । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) इहमांति अर्ध चढाय नित मवि करत शिव पंति मधु । भरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रन्थ नित पूजा रच ॥ वसुविधि अध संजोयके, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन । ओं ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यो अर्घ्यम् निवपामि स्वाहा । बीस महाराज का अर्घ्य । जल फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर भर थाल । नमू कर जोड, नित प्रति ध्याऊ भोरहि भोर ॥ पांचों मेरु विदेह सुथान, तीयकर जिन बीस महान । नमू कर जोड नित प्रति ध्याऊं भोरहि मोर ॥ __ओं ह्रीं विदेहक्षत्रस्य सीमादिविद्यमामविंशति तीर्थकरेभ्यो अध्यम् निर्वपामि स्वाहा । तीन लोकवर्ती चैत्यालयों का अर्घ्य । याति जिनचैत्यानि, विद्यन्ते भुवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्यां , त्रिः परीत्य नमाम्यहं ।। ओं ही त्रिलोक सम्बन्धि जिनेन्द्रषिम्बेभ्यो अय॑म् निर्वपामि स्वाहा सिद्ध परमेष्ठी का अर्घ्य । जल फल वसु वृन्दा अरथ अमंदा,जबत अनन्दा के कन्दा । मेटे मवफन्दा सर्वे दुःख दन्दा, हीराचन्दा तुम बन्दा ॥ उ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवन नामी अन्तरजामी अभिरामी। शिवपुर विश्रामी निज निधिपामी सिद्धजजामि सिरनामी। ओं ह्रीं अनाहत पराक्रमाय सर्व कर्मविनिमुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अय॑म् निर्वपामि स्वाहा। चावीस महाराज का अर्घ्य । जलफल पाठों शुचिसार, ताको अर्घ करों। तुमको अरपों भवतार, भव तरि मोक्ष 'वरों ॥ चौबीसों थी जिनचन्द, आनन्द कन्द सही । पदजजत हरत भव फन्द पावत मोक्षमही ॥ ओं ही श्री वृषभादिवीरांतचतुर्विंशति तीर्थकरेभ्यो अध्यम् निर्वपामि स्वाहा । श्री महावीर जिनपूजा। [कविवर वृन्दावन कृत] छन्द मत्तगयंद । श्रीमतवीर हरै भवपीर भर सुखसीर अनाकुलताई । केहरि अंक अरीकर दंक नये हरि पंकति मौलिसुहाई ॥ मैं तुमको इत थापत हों प्रभु भक्ति समेत हिये हराई । हे करुणा धन धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई ॥ ओं ही श्री वर्धमान जिनेन्द्राय पुष्पांजलिः। (छन्द अष्टपदी) - बीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन श्रृंम मरों। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) प्रभुवेग हरो भवपीर, यात धार करों ॥ श्रीवोर महा अतिवीर, सन्मति दायक हो। जय वर्तमान गुणधीर, सन्मति नायक हो ॥१॥ ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा । मलयागिर चन्दन सार, केसर रंग भरी । प्रभु भव आताप निवार, पूजत हिय हुलसा । श्री वीर महाप्रतिवीर, सन्मति नायक हो । जय वर्तमान गुणधीर, सन्मति दायक हो ॥२॥ ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा । तंदुलसित शशिसम, शुद्ध लीनों थार भरी । तमु पुंज धरो अविरुद्ध, पावो शिव नगरी ॥श्री.॥ ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे । सो मन्मथ भंजन हेत, पूजों पद थारे ॥श्री.॥ ओं ही श्री महावीर जिनेन्द्राय पुष्पम् निर्वपामीति म्वाहा । रस रजत सजत सब, मज्जत थारभरी। पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख भरी ॥श्री.॥ ओं ही श्री महावीर जिनेन्द्राय वेद्य निर्वपामीति स्वाहा । तम खडित मंडित नेह, दीपक जोवत हों। तुम पदतर हे सुख गेह, भ्रमतम खोवत हो ॥श्री.॥ ओही श्री महावीर जिनेन्द्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) हरि चन्दन अगर कपूर, चूर सुगंध करा। तुम पद तर खेवत भूरि, पाठों कर्म जरा ॥श्री।।. ओ हाँ श्री महावीर जिनेन्द्राय धूपं निवपामीति स्वाहा । रितुफल कल वर्जित लाय, कंचन थार भरा। शिवफलहित हे जिनराज, तुम ढिग भेट धरा ॥श्री.॥ ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय फलं निववपामीति स्वाहा । जल फल सु सजि हिम थार, तनमन मोद धरों। गुणगाऊ भवदधितार, पूजत पाप हरों ॥ श्री। ओं ही श्री महावीर जिनेन्द्राय अध्यम् निर्भपामीति स्वाहा । पंच कल्याणक । राग टप्पा चाल में। मोहि राखो हो सरना, श्रीवर्धमान जिनरायजी, मोहि राखो हो सरणा। गरभ माढसित छह लियो थिति, त्रिशला उर अध हरना। सुर सुरपति तित सेव करयो नित, मैं पूजा भव तरना ॥ मोहि राखो हो सरना, श्रीवर्द्धमान जिनरायजी मोहिराखो. ___ओं ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय आषाढ़ शुक्लषष्या गर्म मंगल मण्डिताय अय॑म् निर्वपामि स्वाहा। . जनम चैतसित तेरस के दिन कुंडलपुर कनवरना । सुरगिर मुरगुरु पूज रचायों, मैं पूजों मच हाना सहि.॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) ओं ह्रीं त्र शुक्ल त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामि स्वाहा । मगसिर असित मनोहर दशमी, ता दिन तप आचरना । नृप कुमार घर पारन कीनों, मैं पूजी तुम चरणा मोहि.।। ओं ही मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपो मंगल मंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अय॑म् निर्वपामि स्वाहा। शुक्ल दशैं बैशाख दिवस अरि, घाति चतुक छय करना । केवल लहि भवि भवसरतारे, जजों चरन सुख भरना मोहि॥ ओं हों बैंशाख शुक्लदशम्यां ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अयम् निर्षपामि स्वाहा। कांतिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुर ते परना । गरफनिवृन्द जजे तित बहुविधि, मैं पूजों मवहरना ॥मोहि.॥ ___ओं: ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्यम निर्वपामि स्वाहा । जयमाला। छन्द हरिगीता। गणधर, असनिधर, चक्रधर, हरधर गदाधर वरवदा । अरु चापधर विद्यासुधर तिरसूल सेवहिं सदा ॥ दुख हरन आनन्द भरन तारन तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत, माल की जयमाल है ॥१॥ . . . . . । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) छन्द धत्तानन्द । जय त्रिशला नन्दन, हरिकृत वंदन, जगदानंदन, चन्दवरं । भव तापनिकंदन तन कन मंदन, रहितसपंदन, नयनधरं ।। छन्द त्रोटक) जय केवल भानुकला सदनं । भविकोक विकाशन कंदवनं । जगजीत महारिपु मोहवरे । रजज्ञानहगांबर चूरकरं ॥१॥ गादिक मंगल मंडित हो। दुख दारिदको नित खडित हो। जगांहि तुम्ही सतपंडित हो। तुमही भवभाव विहंडित हो। हरिवंश सरोजनि को रवि हो । बलवंत महंत तुमही कवि हो। लहि केवल धर्म प्रकाशकियो । अवलों सोई मारगराजति हो। पुनि आपतने गुनमांहि सही । मुर मग्न रहैं जितने सबहिं ।। तिनकी बनिता गुणगावत हैं । लय मानीन सो मन भावत हैं ।। पुनि नाचत रंग उमंग भरी । तुम भक्ति विष पग एम धरी ॥ झनन झननं झननं भननं । सुर लेत वहां तनन तननं ।। घनन घननं घन घंट बजै । हमदं दृमदं मिरदंग सजै ॥ गगनांगनगर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ।। धृगतां घृगतां गति बाजत है । सुरताल रसाल जु छाजत है ।। सनन सननं सननं नममें । इकरूप अनेक जुधारि भमैं । कई नारि सु बीन बजावति है । तुमरो जस उज्वल गावति है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) करताल विष करताल धरै । सुरताल विशाल जु नादकरै । इन आदि अनेक उछाह मरी। सुरमक्ति करें प्रभुजी तुमरी॥ तुमही जगजीवन के पितु हो। तुमही बिन कारन ते हितु हो। तुमही सब विघ्न विनाशन हो।तुमही निजानन्द मासन हो। तुमही चित चिंतितदायक हो। जगमांहि तुम्हीं सबलायक हो। तुम्हरे पन मंगलमांहि सही जिय उत्तम पुन्य लियो सबही॥ हमको तुमरी सरनागत है, तुमरे गुन में मन पागत है ॥ प्रभु मो हिय श्राप सदा बसिये । जबलों वसुकर्म नहीं नसिये ॥ तबलों तुम ध्यान हिये वरतों, तबलों श्रुत चिंतन चित्तरतो ॥ वबलों व्रत चारित चाहतु हों, तबलों शुभभाव सुगाहतु हों ।। तबलों सत संगति नित्य रहो, तबलों मम संजम चित्त गहौ। जबलों नहि नाशकरों अरिकों शिव नारिवरों समता धरिको । यह द्यो तबलों हमको बिनजी,हम जाचतु हैं इतनी सुनजी॥ श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा, नागनरेशा भगति भरा । वृन्दावन ध्यावें विघन नशाव, वांछित पावै शर्मवरा ॥ ओं ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय महार्घ्य निर्वामि स्वाहा । श्री सन्मति के जुगलपद, जो पूलै घरि प्रीत । वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत । इत्याशीर्वादः । (पुष्पांजलि क्षेपे) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) सरस्वती पूजा । दोहा। जनम जरा मृतु क्षय करै हरै कुनय जडरीति । भवसागरसों ले तिरे, पूजै जिनवच प्रीति ॥१॥ ओं ह्रीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वत्यै पुष्पांजलिः । छीरोदाधिगंगा विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखसंगा। भरि कंचन झारी, धार निकारी, तृषा निवारी, हित चंगा॥ तीर्थकर की ध्वनि गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानर्मई । सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवनमानी पूज्य भई॥ ओं ही श्री जिनमुखोदभवसरस्वतीदेव्यै जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ करपूर मंगाया चन्दन पाया, केशर लाया रंग भरी। शारदपद वन्दों, मन अभिनंदों, पाप निकंदों दाह हरी ॥ तीर्थ. ॥ चंदनम् ॥ सुखदासकमोद, धारक मोदं प्रति अनुमोदं चंदसमं । बहु भक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाइ, मात ममं ॥ तीर्थ. ॥ अमतान् ॥ ३॥ बहु फूल सुवास, विमल प्रकारां, आनंदरासे लाय धरे । मम काम मिटायो, शील बढायो, सुख उपजायो दोष हरे॥ तीर्थ. ।। पुष्पं ॥ ४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विध भाया मिष्टमहा । पूनँ थूति गाऊँ, प्रीति बढाऊँ, सुधा नशाऊँ हर्ष लहा। तीर्थ. ॥ नैवेद्यं ॥५॥ कर दीपक-जोत, तमक्षय होतं, ज्योति उदोतं तुमहि चहै । तुम हो परकाशक,भरमविनाशक हम घट भासक, ज्ञानबैड़ ।। तीर्थ. ॥ दीपं ॥ ६॥ शुभगंध दशोंकर, पावकमें धर, धूप मनोहर खेवत है। सब पाप जलावे, पुण्य कमावे, दास कहावे सेवत है ।। ___ तीर्थ ॥ धूपम् ॥७॥ बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी न्यावत है। मन वांछित दाता मेट असाता,तुम गुन माता, ध्यावत हो । तीथे. ॥फलम् ॥ ८॥ नयनन सुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वलभारी, मोलधैर । शुभगधसम्हारा, वसननिहारा, तुम तन धारा ज्ञान करें । तीर्थ ॥अध्यम्॥६॥ जलचंदन अक्षत फूल चरू, चत, दीप धूप अति फल लावै । पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर धानत सुखपावै ।। तीर्थ. ॥ अय॑म् ॥१०॥ जयमाला। सोरठा । ओंकार ध्वनिसार, द्वादशांगवाणी विभल । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) नमों भक्ति उर धार, ज्ञान करे जडता हरें ॥ पहलो आचारांग बखानो, पद अष्टादश सहल प्रमानो । दूजो सूत्रकृतं प्रभिलाषं पद छत्तीस सहस गुरु भाष ।' तीजो ठाना अंग सुजानं, सहस बयालिस पदसरधानं । चौथो संमवायांग तिहारं, चौसठ सहस लाख इकधारम् ॥ पंचम व्याख्याप्रज्ञपति दरसं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं || छट्टो ज्ञातृकथा विसतारं, पांच लाख छप्पन हज्जार । सप्तम उपासकाध्ययनंग, सत्तर साहस ग्यारलख भंग || अष्टम अंतकृतं दस ईस, सहस अठाइस लाख तेईस । नवम अनुत्तरदश सुविशाल, लाख बानवें सहस चवालं ॥ दशम प्रश्न व्याकरण विचार, लाख तिरानव सोल हजारं । ग्यारम सूत्रविपाक सु भाखं, एक कोड चौरासी लाख || चार कोडि अरु पंद्रह लाख, दो हजार सब पद गुरुशाखं । द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं, इसौं श्राठ कोडि पन वेदं ॥ अडसर लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंचपद मिथ्या हन हैं । इक सौ बारह कोडि बखानो, लाख तिरासी ऊपर जानो ।। ठाबन सहस पंच अधिकाने, द्वादश अंग सर्व पद माने । कोडि इकावन आठ हि लाख, सहस चुरासी बहसौ भाख ॥ साठे इकीस श्लोक बताये, एक एक पद के ये गाये || Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) धत्ता। जा बानी के ज्ञान मैं, मुझे लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवंत हो, सदा देत हु धोक ॥ ओं ही श्री जिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै महाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ॥ सरस्वती स्तवन । जगन्माता ख्याता जिनवर मुखामोज उदिता । भवानी कल्याणी मुनि मनुज मानी प्रमुदिता ।। महादेवी दुर्गा दरनि दुःखदाई दुरगति । अनेका एकाकी द्वययुत दशांगी जिनमती ॥१॥ कहें माता तो को यद्यपि सबहि ऽनादि निधाना । कथंचित् तो भी तू उपजि विनशै यों विवरना । धरै नाना जन्म प्रथम जिनके बाद अबलों । भयो त्यों विच्छेद प्रचुर तुव लाखों बरसलों ॥ महावीर स्वामी जब सकल ज्ञानी मुनि भये। बिडोजा के लाये समवसृत में गौतम गये। तबै नाका रूपा भवजलधि मांही अवतरी। अरूपा निर्वार्णा विगत भ्रम सांची मुखकारी ॥ धरै है जे प्राणी नित जननि तो को हृदय में । करे हैं पूजा व मन बचन काया कहि नमें॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) पढ़ावें देखें जो लिखि लिखि तथा ग्रन्थ लिखवा । लहें ते निश्चै सो अमर पदवी मोक्ष अथवा ॥ ( यह सरस्वती स्तवन पढ़कर पुष्प क्षेपण करें।) गौतम स्वामीजी को अर्घ्य । गीतमादिक सर्वे एक दश गणधरा । वीरें जिन के मुनि सहस चौदस वरा ॥ वीर गंधाक्षत पुष्प चरु दीपक । घूप फल अध्य ले हम जजें महर्षिकं ॥ ओं हां महावीर जिनस्य गौतमाय कादशगणधर चतुर्दश सहस्त्र मुनिवरेभ्योऽध्यम् निर्वपामि स्वाहा । इस प्रकार अर्घ्य चढाकर लाभ आदि में विघ्न करनेवाले अन्तराय कर्म को दूर करने के लिये नीचे लिखा हुआ पद्य पढे। अन्तरायनाशार्थ अर्घ्य । लाम की अंतराय के वश जीव सु ना लहै। जो करे कष्ट उत्पात सगरे कर्मवश विरथा रहे ॥ नहिं जोर वाको चले इक छिन दीनमो जगमें फिरे । अरहंत सिद्धसु अधर धरिके लाम यों कर्म को हरे ।। ओं ही लाभांतरायकमरहिताभ्यां . अर्हत् सिद्धपरमेष्ठिभ्यां अय॑म् निर्वपामि स्वाहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) अंतराय है कर्म प्रबल जो दान लाभ का घातक है । वीर्य भोग उपभोग सभी में, विघ्न अनेक प्रदायक है ।। इसी कर्म के नाश हेतु श्री, वीर जिनेन्द्र और गणनाथ । सदा सहायक हों हम सब के, विनती करें जोडकर हाथ ॥ (यहांपर पुष्पक्षपणकर हाथ जोड़े) इसके बाद हरएक बही में केशरसे सांथिया मांडकर एक एक कोरा पान रखे और निम्न प्रकार लिखें। लाभ शुभ श्री ऋषभदेवाय नमः, श्री महावीराय नमः, श्री गौतमगणधराय नमः, श्री केवलज्ञानलक्ष्म्यै नमः, श्री जिनसरस्वत्यै नमः। श्री शुभ मिती कार्तिक ...... .."वीर नि. संवत २४ .. विक्रम सं. २०० . दिनाँक । ।१९...ई... वार को श्री......................................की................... दुकाम की....................."वही का शुभ मुहूर्त किया। यह हो जाने के बाद विधि करानेवाले, दूकान के मुख्य सज्जन को वही हाथ में देवे और पुष्प चेपे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) इसके बाद घर के प्रमुख महाशय को नीचे लिखा हुआ पद्य व मन्त्र पढ़कर शुभकामना करें और फूलमाला पहिराकर पुष्प क्षेपण करें। 3 पद्य । आरोग्य बुद्धि धन धान्य समृद्धि पावें । भय रोग शोक परिताप सुदूर जावें || सद्धर्म शास्त्र गुरु भक्ति शांति होवे । व्यापार लाभ कुल वृद्धि सुकीर्ति होवे ॥१॥ श्री वर्द्धमान भगवान सुबुद्धि देवें । सन्मान मत्यगुण संयम शील देवें ॥ नव वर्ष हो यह सदा सुख शांति दाई । कल्याण हो शुभ तथा अति लाभ होवे ॥ २ ॥ ओं ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रः श्रर्हसिद्धाचार्योपाध्याय साधक शांति पुष्टिं च कुरु कुरु स्वाहा । (पश्चात् शांति विसर्जन करें । शांतिपाठ । शांतिनाथ मुख शशि उनहारी, शील गुण व्रत संयमधारी । लखन एकसी आठ विराजे, निरखत नयन कमल दल लाजै ॥ पंचम चक्रवर्ति पदधारी, सोलम तीर्थकर सुखकारी । इन्द्र नरेन्द्र पूज्य जिननायक नमो शांतिहित शांति विधायक ॥ दिव्य विटप पहुपनकी वरषा, दुंदुभि शासन बानी सरसा । । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) छत्र चमर भामंडल भारी, ये तुव प्रातिहार्य पनिहारी ।। शांति जिनेश शांति सुखदाई, जगत पूज्य पूजों सिरनाई । परम शांति दीजे हम सबको, पढ़े जिन्हें पुनि चार संघको । पूजें जिन्हें मुकुटहार किरीट लाके, इंद्रादिदेव अरु पूज्य पदाब्ज जाके । सो शांतिनाथ वर वंश जगत्प्रदीप, मेरे लिये करहु शंति सदा अनुप ।। संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतिनकों को यतिनायकों को। राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सुखी हे जिन शांतिको दे। होवे सारी प्रजा को सुख, बल युत हो धर्मधारी नरेशा । होघे वरषा समय पे, तिलभर न रहे व्याधियों का अंदेशा ।। होवे चोरी न जारी, सुसमय वरतै, हो न दुष्काल मारी। सारे ही देश धारे,जिनवर वृष को जो सदा सौख्यकारी ॥ घाति कम जिन नाश करि पायो केवलराज । शांति करें ते जगत में, वृषभादिक जिनराज ।। (तीन बार शांति धारा देवें) . विसर्जन पाठ । बिन जाने वा जान के, रही टूट जो कोय । तुव प्रसाद ते परम गुरु, सो सब पुरन होय ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बालक पश्चात (६८) पूजन विधि जानूं नहीं, नहिं जानों अाह्वान । और विसर्जन हूं नहीं, क्षमा करो भगवान ।। मंत्र हीन धन हीन हूं, क्रिया हीन जिनदेव । क्षमा करहु गखहु मुझे देहुं चरण की सेव ॥ सर्व मंगल मांगल्यम, सर्व कल्याण कारकम् । प्रधानं सर्वधर्माणां, जैन जयतु शासनम् ।। इसके पश्चात खडे होकर आगे लिखा हुआ महावीराटक पढते हुए अर्घावतारण करें। महावीराष्टक स्तोत्र । (शिखरिणी छन्द) यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः । समं भांति प्रौव्यव्ययजनिलसंतोऽन्त रहिताः ॥ जगत्साक्षी मार्ग प्रकटनपरो भानुरिव यो। महावीर स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥१॥ अतानं यच्चक्षुः कमल युगलं स्पंदरहितं । जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यंतरमपि ॥ स्फुटं मूतिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला । महावीर स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥२॥ नमन्नाकेंद्राली मुकुटमणिमाजालजटिलं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) लसत्पादांमोजद्वयमिह यदीयं तनुभृतां ॥ भवज्वलाशान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥३॥ यदर्चाभावेन प्रमुदितमना दर्दुर इह । . क्षणादासीत्स्वर्गी गुणगसमृद्धः सुखनिधिः ॥ लभते सदभक्ताः शिवसुखसमाज किमु तदा । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥४॥ कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगततनुज्ञाननिवहो । विचित्रात्माप्येको नृपतिवरसिद्धार्थतनयः ॥ अजन्मापि श्रीमान विगतभवरागोदभुतगति-। महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ ५ ॥ यदीया वाग्गंगा विविधनयकन्लोलविमला । वृहज्ज्ञानांमोभिजंगति जनतां या स्नपयति ॥ इदानीमप्येषा बुधजनमरालः परिचिता । महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥६॥ अनि रोद्रेकस्त्रिभुवनजयी काममुमटः । कुमारावस्थायामीप निजवलायेन विजितः॥ . स्फुरनित्यानंदप्रशमपदराज्याय स जिनः । महावीरस्वामी नयनपथमामी मवतु मे ॥७॥ महामोहातंकप्रशमनपराकस्मिकमिषम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) निरापेक्षो बंधुर्विदितमहिमा मंगलकरः ॥ शरण्यः साधूनां भवभयभृतामुत्तमगुणो। महावीरस्वामी भयनपथगामी भवतु मे ॥८॥ महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या मागेन्दुना कृतं । यः पठेच्छणु याच्चापि स याति परमां गति ॥६॥ पूजन के बाद याचकों को दान, सज्जनों का सम्मान सेवकों को मिष्टान्न वितरण प्रादि देशरीति अनुसार करना चाहिये और व्यवहारियों को उत्सव मनाने के समाचार पत्र मेजना चाहिये। नोट:-जिन्हें अन्तराय कर्म प्रबल हो वे रात्रि में जिन सहस्र नाम का पाठ अवश्य करें। नूतनवर्ण का प्रपात मंगल दाई हो इसके लिये सर्व सपजनों को १०८ बार अनादिमूल मन्त्र का शुद्ध भावों से जाप्य करना चाहिये। नई बही मुहूर्त की सामग्री। अष्ट द्रव्य धुले हुए, धूपदान, दीपक, बालचोल, सरसों । १ २ १ वार - थाली, श्रीफल, लोटा जल का, लच्छा, शास्त्र, धूप, अगरबत्ती १ - पाटे, चौकी, कुंकुम्, केशर घिसी हुई, कोरे पान, दवात, २ २ .5- ) कलम, सिंदूर घी में मिलाकर (श्री महावीयय नमः और लाम शुभ दुकान की दीवाल पर लिखने को) फूलमालायें, नई वहियां आदि। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) निर्वाणकांड भाषा। दोहा । वीतराग बन्दों सदा, भाव महित शिरनाय । कहूं कांड निर्वाण की, माषा सुगम बनाय । चापाई १५ मात्रा। अष्टापद आदीश्वर स्वामी, वासु पूज्य चंपापुर नामि । नेमिनाथ स्वामी गिरनार, बन्दी माव भक्ति उरधार ।। चरम तीर्थकर चरम शरीर, पावापुरि स्वामी महावीर । शिखर समेद जिनेश्वर वीसमावसहित वन्दी जगदीश ।। वरदत रायरु इन्द्र मुनींद्र, सायरदा आदि गुणवृन्द । नगर तारवर मुनि उठकोडि, बदा भाव पहित कर जोडि ॥ श्री गिरनार शिखर विख्यात, कोड़ि बहतर अरु सा सात ॥ शंबु प्रधुम्न कुमर हैं माय, अनिरुध आदि नम् तमुपाय । रामचंद्र के सुत वीर, लाडनरिंद आदि गुणधीर ।। पांच कोडि मुनि मुक्ति मझार, पावागिर वंदो निरधारं । पांडव तीन द्रविड राजान, आठकोडि भनि मुक्ति फ्यान । श्री श्रृंजय गिरि के सीस, माव सहित को जगदीश ॥ १-साढ़े तीन करोख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) जे बलभद्र मुकति में गये, आठकोडि मुनि औरहु भये । श्री गजपंथ शिखर सुविशाल, तिनकेचरण नमू तिहुकाल ॥ राम हनु सुग्रीव सुडील, गव गवाक्ष नील महानील । कोडि निन्याणवै मुक्ति पयान, तुंगीगिरि बंदों धरि ध्यान । नंग अनंग कुमार मुजान, पांच कोडि अरु अर्घ प्रमान । मुक्ति गये सोनागिरशीश, ते बन्दौं त्रिभुवनपति इस ॥ रावण के सुत श्रादि कुमार, मुक्ति गये रेवातटसार । कोडिपंच अरु लाख पचास, ते बंदों धरि परम हुलास ॥ रेवानदी सिद्धवरकूट, पश्चिम दिशा देह जहां छुट । द्वै चक्री दश कामकुमार, ऊठकोडि बंदो भवपार ॥ बडवाणी बडनयर सुचंग, दक्षिण दिशगिरि चूल उतंग । इन्द्रजीत अरु कुम्भ जु कर्ण, ते बंदों भवसायरतर्ण । सवरण भद्र आदि मुनिचार, पावागिरवर शिखर मझार ॥ चेलना नदी तीरके पास, मुक्ति गये वैदी नित तास । फल होड़ी बडगांव अनूप, पश्चिम दिशा दोणगिरि रूप ॥ गुरुदत्तादि मुनीश्वर जहां, मुक्ति गये वो नित तहां ॥ बालि महावालि मुनि दोय,नागकुमार मिलें त्रय होय । श्री अष्टापद मुक्ति मझार, ते वा नित सुरत संभार ॥ अचलापुर की दिशा ईशान, वहां मेढगिरि नाम प्रधान । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) साढेतीन कोडि मुनिराय, तिनके चरन नमूं चित्तलाय ॥ वंशस्थल वनके ढिंग होय, पश्चिम दिशा कुंथुमिरि सोय । कुलभूषण देशभूषण नाम, तिनके चरणनि करूं प्रणाम । दशरथ रांजा के मुत कहें, देश कलिंग पांचसो लहे। कोटि शिला मुनि कोटि प्रमान, वंदन करूं जोर जुगपान ।। समवसरण श्री पार्श्व जिनंद, रेसंदीगिरि नयनानंद । वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते बन्दो नित धरम जिहाज ॥ तीन लोक के तीरथ जहां, नित प्रति वंदन कीजे तहां । मन वच कायसहित सिरनाय वंदन करहिं भविक गुणगाय ।। संवत मतरहसौ इकताल, आश्विन सुदी दशमी सुविशाल । 'भैया' वंदन करहि त्रिकाल, जय निर्वाणकांड गुणमाल | समाधि-मरण भाषा पं. सूरजचन्दजी विरचित (छन्द नरेन्द्र) बंदों धी भरहंत परम गुरु, जो सबको सुखदाई। इस जग में दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई॥ अब मैं अरज करूं प्रभु तुमसे, कर समाधि पर मांही। अन्त समय में यह घर मांग, सो दीजे जगराई॥ भव भव में तन घार नये मैं, भव भव शुम संग पायो। भव भव मैं नृप रिद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७४) भव भव मैं तन पुरुषतनो घर, नारी हू तन लीनो। भव भव में मैं भयो नपुंसक, आतम गुण नहिं चीनी ॥ भव भव में सुर पदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। । भव भव में गति नरकतनी घर, दुख पाये विधि योगे। भव भव मैं तिचंच योनि घर, पायो दुख अति भारी । भव भव में साधर्मी जन को, संग मिलो हितकारी ॥ भव भव मैं जिन पूजा कीनी, दान सुपात्रहिं दीनो । भव भव में मैं समवशरण में, देखो जिन गुण भीनो ॥ एती वस्तु मिली भव भव मैं, सम्यक्गुण नहीं पायो। ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातै जग भरमायो॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरणहि कीनो। एक वारमी सम्यक् युत में, निज प्रातम महिं चीनो॥ जो निज पद का ज्ञान होय तो, मरण समय दुख काई । देह विनासी मैं निज भासी, ज्योति स्वरूप सदाई ॥ विषय कषाय नि के बश होकर, देह श्रापनो जानो। कर मिथ्या सरधान हिये बिच, आत्तम नाहि पिछानो। यों क्लेश हिय धार मरण कर, चारों गति भरमायो । सम्यक्दर्शन, ज्ञान चरिघ मैं, हिरदय में नहिं लायो॥ प्रब या अरज करूं प्रभू सुनिबे, मरण समय यह मांगो। रोग जनित पीड़ा मत होवो, अरु कषाय मत जागो॥ ये मुझ मरण समय दुख दाता, इन हर साता कीजे । जो समाधियुत मरण होय मुझ, अरु मिथ्यागद छीजे॥ यह तन सात कुधात मई है, देखत ही घिन आवे । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्ठा पावे ॥ अति दुर्गंध अपावन सों यह, मूरख प्रीति बढ़ावे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) देह विनासी यह अविनासी, नित्य स्वरूप कहावे॥ यह तन जीर्णकुटी सम प्रातम, याते प्रीति न कीजे। नूतन महल मिले जब भाई, तब यामें क्या छीजे॥ मृत्यु होन से हानि कौन है, याको भय मत लाओ। समता से जो देह तजोगे, तौ शुभ तन तुम पाओ। मृत्यु मित्र उपकारी तेरा, इस अवसर के माहीं । जीरन तन से देत नयो यह, या सम साहू नाहीं। यासे ही इस मृत्यु समय पर, उत्सव अति ही कीजै ॥ क्लेश भाव को त्याग सयाने, समता भाव घरीजे । जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिन को फल सुखदाई ॥ मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग सम्पदा भाई । राग रोष को छोड़ सयाने, सात आसन दुख दाई । अन्त समय में समता घारो, पर भव पंथ सहाई । कर्म महा दुठ वैरी मेरो, तासे तो दुख पावे। तन पिंजर में बंद कियो मोहि, यासों कोन छुहावे ॥ भूख तुषा दुख मादि कनेकन, इस ही तन में गाढे । मृत्युराज अब आप दया कर, तन पिंजरे से काढे ॥ नाना वस्त्राभूषण मैंने, इस तन को पहिराये। गंध मुगंधित अतर लगाये, षटस अशन कराये ॥ रात दिना में दास होयकर, सेव करी तन केरी। सो तन मेरे काम न भायो, भूल रही निधि मेरी॥ मृत्युराज को शरण पाय तन, नृतन ऐसो पाऊं। जामे सम्यक् रत्न तीन, साहि, काठों कर्म खपाऊं ॥ देखो तन सम और कुतनी, नाहि सु या जग माही। मृत्यु समय में ये ही परिजन, सही हैं दुखदाई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) यह सब मोह बढावन हारे, जिय को दुर्गति दाता। इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुखसाता ।। मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, मांगो इच्छा जेती। समता घर कर मृत्यु करो तो, पाश्रो संपति तेती॥ चौ श्राराधन सहित प्राण तज, तो ये पदवी पावो। हरि प्रतिहरि चक्री तीर्थेश्वर, स्वर्ग मुकति में जावो ॥ मृत्यु कल्यढमसन नहि दाता, तीनों लोक मझारे। ताको पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे ॥ इस तन में क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरन हो है। तेज कांतिबल नित्य घटत है, था सम अथिर सु कोहै। पंचों इन्द्रिय शिथिल भई अत्र, स्वास शुद्ध नहिं भावे । ता पर भी ममता नहिं छो, समता उर नहि लावै ॥ मृत्युराज उपकारी जिय को, तन से तोहि छुड़ावै । नातर या तन बंदीगृह में, परयो परयो बिललावै ।। पुदगल के परमाणु मिलकर, पिंड रूप तन भाषी। याही मूरत मैं अमूरती, ज्ञान जोति गुण खासी ॥ रोग शोक श्रादिक जो वेदन, ते सव पुदगल लारे। मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे।। या तन से इस क्षेत्र संबन्धी, कारण आन बन्यो है। खान पान दे याको पोषो, अब समभाव ठन्यो है। मिथ्या दर्शन आत्मज्ञान विनु: यह तन अपनों जानो। इन्द्री भोग गिने सुख मैंने, आपो नहीं पिछानों॥ तन-विनशन ते नाश जानि निज, यह अज्ञान दुखदाई। कुटुम्ब आदिको अपनो जानो, भूल अनादि छाई ॥ प्रव, निज मेद यथारथ समझो, मैं हूं ज्योति स्वरूपी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७) उपजै विनसे सो यह पुदगल, जाना याको रूपी ॥ दृष्टनिष्ट जे तो सुख दुख हैं, सो सब पुदगल लागे । मैं जब अपनो रूप विचारों, तब वे सब दुख भागे ॥ बिन समता तन नन्त घरे मैं, तिन में यह दुख पायो । शस्त्र घात तैं नन्त बार भर, नाना योनि भ्रमायो ॥ बार अनन्तहि अग्नि मांहि जर मूवो सुमति न पायो । सिंह व्याघ्र अहि नन्तवार मुझ, नाना दुःख दिखायो || बिन समाधि ये दुख लहे मैं, अब उर समता आई । मृत्यु राज को भय नहिं मानो, देवे तन सुखदाई ॥ यातें जब लग मृत्यु न श्रावै, तब लग जप तप कीजे । जप तप बिन इस जग के माहीं, कोई भी ना सीजे ॥ स्वर्ग संपदा तप से पावे, तप से कर्म नसावे । तप६ी से शिवकामिन पति है, यासी पति चित लावै ॥ अब मैं जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहीं सहाई । मात पिता सुत वांधव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई ॥ मृत्यु समय में मोह करें ये, तातैं आरत हो । भारत तें गति नीची पावै, यों लक्ष मोह तजो है ॥ ओर परिग्रह जेते जग में, तिन से प्रीति न कोजे । पर भव में ये संग न चालें, नाहक भारत कीजे ॥ जो जो वस्तु लसत हैं ते पर, तिन से नेह निवारो । पर गति में ये साथ न चालें, ऐसो, भाव, विचाहो ॥ जों पर भव में संग चलें तुझ, तिन से प्रीति सु कीजे । पंच पाप तज समता धारों, दान चार विध दीजे ॥ दशलक्षण मयं धर्म घरो उर, अनुकंपा चित खावो । षोडश कारण नित्य चिन्तवो, द्वादश भावन भावो ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) चारों परवी प्रोषध कीजे, अशन रात को त्यागो । समता घर दुरभाव निवारो, संयम सो अनुरागो ॥ अन्त समय में ये शुभ भावहि, होवें आनि सहाई । स्वर्ग मोक्ष फल तोहि दिखावे, रिद्धि देंहि अधिकाई ॥ खोटे भाव सकल जिय त्यागो, उर में समता लाके । जा सेती गति चार दूर कर, वसो मोक्षपुर जाके ॥ मन थिरता करके तुम चिंतो, चौ आराधन भाई । येही तोको सुख की दाता, और हितू कोऊ सुख नांई ॥ श्रागे बहु मुनिराज भये हैं, तिन गही थिरता भारी । बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥ तिनमें कछु इक नाम कहूँ मैं, सो सुन जिम चित लाके । भाव सहित अनुमोदे तासैं, दुर्गति होय न जाके ॥ अरु समता निज उर में श्रावै, भाव अधीरज जावें । यों निशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये बिच लावैं ॥ धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी । एक स्यालनी जुग बच्चा जुत, पाव भख्यो दुखकारी ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी । सो तुम्हरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥ धन्य धन्य सुकौशल स्वामी, व्याघ्रीने तन खायो । तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतम सों हित खायो ॥ यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता, आराधन चितधारी । तो तुम्हारे. देखो गजमुनि के शिर ऊपर, विप्र अगिनि बहु बारी ॥ शीस जलें जिम लकड़ी तिनको, तो भी नाहिं चिधारी । यहउपसर्ग सह्यो घरथिरता, आराधन चितधारी ॥ तोतुम्ह रे. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) सनतकुमार मुनीके तनमें, कुष्ट वेदना ब्यापी । छिन्न भिन्न तन तासों हूवो, तब चिंत्यो गुण प्रापी॥ यह उपसर्गसह्यो घरथिरता, आराधन चितधारी । तो तुम्हरे. श्रेणिक सुत गंगामें डुब्यो, तव जिन नाम चितायो । घर सलेखना परिग्रह छोड्यो, शुद्ध भाव उर धारयो। यह उपसर्ग सहो धरथिरता,आराधन चितधारी । तो तुम्हरे. समंतभद्रमुनिवर के तनमें, तुधावेदना आई। तो दुख में मुनि नैक न डिगियो, चिंत्यो निजगुण भाई ॥ यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता,अाराधन चित्तधारी ॥ तो तुम्हरे. ललितघटादिक तीस दोय मुनि, कौशांबीतट जानो ॥ नद्दो में मुनि बहकर मूवे, सो दुख उन नहिं मानो। यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता,अाराधन चितधारी ॥ तो तुम्हरे. धर्मघोष मुनि पानगरी, वाह्य ध्यान घर ठाड़ो। एक मास की कर मर्यादा, तृषा दुःख सह गादो॥ यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता,आराधन चितधारी॥तो तुम्हरे. श्रीदतमुनिको पूर्वजन्म को, बैरी देव सु आके। विक्रय कर दुख शीततनोसो, सह्यो साधु मन लाके । यह उपसर्ग सहो धरथिर,आराधन चितधारी । तो तुम्हरे. वृषभसेन मुनि उष्णशिलापर, ध्यान घयो मनलाई। सूर्य घाम अरु उष्ण पवनकी, वेदन सहि अधिकाई ॥ यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता,आराधन चितधारी॥तो तुम्हरे. अभयघोष मुनि काकंदीपुर, महावेदना पाई। वैरी चंडने सब तन छेचो, दुख दीनो अधिकाई। यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता,अाराधन चितघारी । तो तुम्हरे. विद्युतचर ने वहु दुख पायो, तो मी धीर न त्यागी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) शुभभावनसों प्राण तजे निज, धन्य और बड़भागी । यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता,आराधन चितधारी| तो तुम्हरे. पुत्र चिलाती नामा मुनिको, वैरीने तन घाता। मोटे मोटे कीट पड़े लन, तापर निज गुण राता॥ यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता,अाराधन चितधारी ॥तो तुम्हरे. दंडकनामा मुनि की देही, वाणन कर अरि भेदी । तापर नेक डिगे नहिं वे मुनि, कर्म महारिपु छेदी॥ यह उपसर्ग सह्यो धरथिरता,अाराधन चितधारी । तो तुम्हरे. अभिनंदन मुनि आदि पांचसौ, घानी पेलि जु मारे। तो भी श्रीमुनि समता धारी, पूरवकर्म बिचारे । यह उपसर्ग सह्यो धरथिरता,अाराधन चितधारी ॥ तो तुम्हरे. चाणक मुनि गोघरके माहीं, मूंद अगिन परजाल्यो। श्रीगुरु उर समभाव धारके, अपनो रूप सम्हाल्यो। यह उपसर्ग सह्यो धरथिरता,आरायन चितवारी ॥ तो तुम्हरे. सातशतक मुनिवर दुख पायो, हथनापुरमें जानो। बलिब्राह्मणकृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहिं मानौ ॥ यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता,अाराधन चितधारी । तो तुम्हरे. लोहमयी आभूषण गढ़के, ताते कर पहराये ॥ पांचों पांडव मुनिके तनमें, तो भी नाहिं चिगाये। यह उपसर्ग सह्यो धरथिरता,पाराधन चितधारी ॥ तो तुम्हरे. और अनेक भये इस जगमें, समता-रसके स्वादी । वै ही हमको हो सुखदाता, हर हैं टेव प्रमादी । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, ये श्राराधन चारों। ये ही मोकी सुख की दाता, इन्हें सदा उर धारों। यो समाधि उर माही लावो, अपनो हित जो चाहो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) तज ममता अरु भाठों मद को, जोतिस्वरूपी ध्यावो ॥ जो कोई नित करत पयानो, ग्रांमान्तर के काजै। सो मी शकुन विचारै नीके, शुभके कारण साजै ।। मातपितादिक सर्व कुटुमसब, नीके शकुन बनावै । हलदी धनियां पंगी अक्षत, दूध दही फल लावै॥ एक ग्राम जाने के कारण, करें शुभाशुभ सारे । जब परगति को करत पयानों, तब नहिं सोचौ प्यारे॥ सर्वकुटुम जब रोधन लागे, तोहिं रुलावे सारे। ये अपशकुन करै सुन तोको, तू यों क्यों न विचार। अव परगति को चालत विरियां, धर्मध्यान उर आनो। चारों पाराधन मनमें आराधो, मोहतनो दुख हानों। होय निःशल्य तजो सब दुविधा, आतमराम सुध्यावो। जब परगतिको करहु पयानो, परम तत्त्व उर लायो। मोह जालको काट पियारे, अपनो रूप विचारों। मृत्युमित्र. उपकारी तेरो, यो उर निश्चय धारो। दोहा मृत्युमहोत्सव पाठको, पढो सुनो बुरिक्सन . सरधा घर नित मुख,लो, सूरचंद शिवथान ।। पंच उभय नव एकनभ संवत सो सुखवाय। आश्विन श्यामा सप्तमी, कहो पा मन लाय।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) बारह भावना / ( मंगतरामजी कृत ) (छन्द विष्णुपद ) दोहा -- बन्दु श्री श्रईत पद, बीतराग विज्ञान | वरगं बारह भावना, जग जीवन हित जान ॥ कहां गये चक्री जिन जीता, भरतखण्ड सारा । कहां गये वह रामरु लछमण, जिन रावन मारा ॥ कहां कृष्ण रुकमिनि सत्यभामा, अरु सम्पत्ति सगरी । कहां गये वह रंग महल, अरु सुबरन की नगरी ॥ नहीं रहे वह लोमी कौरव, जूझ मरे रन में । गये राज तज पांडव वनको, अग्नि लगी तनमें ॥ मोहनींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को । हो दयाल उपदेश करें गुरु बारह भावन को ॥ अनित्य भावना । सूरज चांद छिपे निकले ऋतु फिर फिर कर आवै । प्यारी श्रायु ऐसी बीते, पता नहीं पावै ॥ पर्वत पतित नदी सरिता जल, बहकर नहिं घटता । स्वांस चलत यो घटे काढ ज्यों भारेसों कटता ॥ श्रीस बून्द ज्यों गले धूप में, वा अंजुलिपानी । छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्र जाल आकाश नगर सम जग सम्पति सारी । अथिर रूप संसार विचारों, सब नर अरु नारी ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) अशरण भावना। काल सिंह ने मृग चेतन को घेरा भव वन में । नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मनमें ॥ मन्त्र तन्त्र सेना धन सम्पति, राज पाट छुटे । वश नहीं चलता काल लुटेरा, काय नगर लुटे ।। चक्र रतन हलघर सा भाई काम न पाया। एक तीर के खागत कृष्ण की, विनश गई काया ।। देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिरे भटकता चेतन, यु ही उमर खोई॥ संसार भावना । जनम मरण अरु जरा रोग से, सदा दुखी रहता। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भष, परिवर्तन सहता ॥ छेदन मेदन नरक पशु गति, बघ बन्धन सहना । राग उदय से दुख सुरगन में, कहां सुखी रहना। भोग पुण्य फल हो एक इन्द्री, क्या इसमें खाली। कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली। मानुष जन्म भनेक विपत्ति मय, कहीं न सुख देखा। पंचम ग्रति सुख मिले, शुभाशुभ का मेटो लेखा । एकत्व भावना। जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख दुख का भोगी। और किसी का क्या इकदिन यह, देह जुदी होगी। कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा। अपने अपने सुख को रोवै, पिता पुत्र दारा॥ ज्यों मेले में पंथीजन मिति नेह फिरें घरते। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८४) ज्यों तरवर पै रैन बसेरा, पंछी मा करते ॥ कोस कोई दो कोस कोई उड फिर थक थक हारे । जाय अकेला हंस संग में, कोई न परमारै। अन्यत्व भावना । मोहरूप'मृग तृष्णा ज़ग मैं मिथ्या जल चमकै। चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौडे थक थककै ॥ जल नहि पावै प्राण गमावै, भटक भटक मरता । वस्तु पराई माने अपनी; भेद नहीं करता । तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । मिले अनादि यतनत, बिछुडै, ज्यों पय अरु पानी।। रूप तुम्हारा प्लबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जौलों पुरुष थकै न तौलों उद्यमों टरना ॥ अशुचि भावना । तू नित पेखि यह सूख ज्यों, धोवे त्यों मैली। निश दिन करै उपाय देहका, रोग दशा फैली ।। मात पिता रज वीरज मिलकर, बनी वेह तेरी। मांस हाइ नशाहू राधकी, प्रगट व्याधि घेरी ॥ काना पडद्य पडा हाथ, यह चूसै तौं रोवै। फलै अनन्त जु धर्मध्यान की, भूमि विषे बोवें। केशर चन्दन पुष्प सुगंधित. वस्तु देख सारी ॥ देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी। श्राव भावना। ज्यों सर जल पावत मोरी त्यों, आश्रय कर्मनको। दर्वित जीक प्रदेश गहै जब पुरगल भरमा को। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) भावित आश्रव भाव शुभाशुभ,निशिदिन चेतनको ॥ पाप पुण्य को दोनों करता, कारण बन्धन को । पन मिथ्यात योग पंद्रह द्वादश अविरत जानो। पंचरु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मामो ॥ मोहमाव की ममता टारै, पर परणत खेते। करै मोखका यतन, निराश्रव बानी जन होते ॥ संवर भावना। ज्यों मोरीमें डाट लगावै, तब जल रुक जाता। त्यों पाश्रव को रोकै, संवर, क्यों नहि मन लाता ॥ पंच महाव्रत समिति गुप्तिकर, वचन काय मनको। दश विधि धर्म परीषह बाइस, बारह भावन को॥ यह सब भाव सतावन, मिलकर, पाश्रव को खोते । सुपन दशा से जागो चेतन, कहां पडे सोते ॥ भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध भावनसंवर पावै । डांट लगत यह नांव पडी मझधार पार जावै॥ निर्जरा भावना । ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पडै भारी। संवर रोकै, कर्म निर्जरा, है सोखनहारी। उदय मोग सविपाक समय, पकजाय श्राम डाली। दूजी है अविपाक पका, पाल विर्षे माली। पहली सबके होय नहीं, कुछ सरै काम तेरा दूजी करै लु उगम करिके, मिटे.जमत फेरा। संवर सहित करो तप प्रानी, मिलै मुकति पनी। इस दुलहनकी यही सहेली, जानै सब बानी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८६) लोक भावना । लोक अलोक प्रकाश माँहि थिर, निराधार जानो ॥ पुरुषरूप कर कटी भवे, षट् द्रव्यनसों मानो। इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है। जीवरु पुद्गल नाचै यामै, कर्म उपाधी है। पाप पुण्य सों जीव जगत मैं, नित सुख दुःख भरता ॥ अपनी करनी श्राप भरै, सिर औरन के धरता। मोहकर्म को नाश मेरकर, सब जग की भाशा ॥ निज पदमैं थिर होय लोकके शीश करो बाला। बोधिदुर्लभ भावना । दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु बसगति पानी । नरकाया को सुरपति तरसै सो दुर्लभ प्रानी ॥ उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ, धावक कुल पाना । दुर्लभ सम्यक, दुर्लभ संयम, पंचम गुण्ठाना ॥ दुलभ रत्नत्रय प्रागधन, दीक्षा का धरना । दुभि मुनिवर को ब्रतं पालन, शुद्धभाव करना । दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावै । पाकर केवलज्ञान नहीं फिर इस भव में प्रावै ॥ धर्म भावना। षट् दरशम अरु बौद्धरु नास्तिक ने जग को लूटा । मूसा ईसा और मुहम्मद का मजहब भूठा हो सुछन्द सब पाप करें सिर करता पाये। कोई छिलक कोई करता से, अगमैं मटका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) वीतराम सर्वज्ञ दोष बिन श्रीजिनकी वानी । सप्त तत्व का वर्णन जामैं, सबको सुखदानी ॥ इनका चितवन बार बार कर, श्रद्धा उर धरना । मंगत इसी जतनतै इक दिन, भवसागर तरना ॥ सामायिक की विधि | अपने प्रतिदिन के जीवन को निरीक्षण करके उसमें सुधार करने, समताभाव प्राप्त करने और आत्मानुभूति के लिए सामायिक करना आवश्यक है । अपने दैनिक कार्यों का अवलोकन कर उनमें जो बुरे है उनको दूर करने का और जो अच्छे हैं उनमें प्रगति करने की प्रेरणा हमें सामायिक से मिलती है। राग, द्वेष मोह, ममता आदि दुर्भाव दूर होकर आत्मा की उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। मैं कौन हू, कहां से आया हूँ और मेरा क्या उद्देश्य है इस पर विचार करने का मौका सामायिक द्वारा संभव है । अतः प्रति दिन प्रातः और सायं सामायिक अवश्य करना चाहिए । एकांत स्थान में शुद्ध वस्त्र पहनकर पद् मासन, अर्ध पद्मासन खड्गसन, या सुखासन में से सुविधानुसार किसी एक आसन से पाटे या चटाई पर निराकुल होकर सामायिक करने बैठे। प्रथम ही पूर्व या उत्तर दिशा में मुहकर दोनों हाथों को लम्बा कर दोनों पैरों के बीच में चार अंगुल का अन्तर रखकर सीधा खडा हो फिर नासाग्र दृष्टि हो ६ बार णमोकार मन्त्र पढ़े और अष्टांग नमस्कार कर सामायिक के काल की मर्यादा कर अपने पास के परिग्रह के सिवा शेष का त्याग, आने जाने का और राग द्वेष का त्याग करे । फिर उसी दिन में ६ बार एमोकार मन्त्र पढ़कर ३ आवर्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) और १ शिरोनति करे। हाथ जोड़कर बांये हाथ की तरफ नीचे घुमाकर दाहिने हाथ की ओर ऊपर लेजाने को आवतन और हाथ जोड़कर शिर मुकने को शिरोनति कहते हैं । उक्त क्रिया उस दिशामें स्थित पंचपरमेष्ठी और जिन चैत्य चैत्यालयों को नमस्कार करनेके लिए है अतःबाबत शिरोनति के साथ पूर्वदिशा सम्बंधी पंच परमेष्ठी और जिनचैत्यालयों को मन,बचन,और कायसे नमस्कारकरता हूँ" यह कहे । फिर दूसरी दिशा दक्षिण (यदि पूर्व से प्रारम्भ किया, हो तो) में और पश्चिम तथा उत्तरमें भी इसीप्रकार करे। फिर पूर्व दिशामें उक्त आसनों में से किसी एकको स्वीकार कर सामायिक शुरू करे।इससमय सामायिकपाठ और आलोचनापाठ पढ़े। फिर सूतकी माला से अथना बैठा होय तो अपने बांये हाथ के ऊपर सीधे हाथ को रखकर सीधे हाथ में अंगुष्ठ द्वारा सीधे हाथकी अनाभिका अंगुली के बीचके पौर को और उससे ऊपर का पौर गिनकर फिर कनिष्ठा के ३ पौर और फिर अनामिका का नीचे का पौर, उसके बाद नीचे से मध्यमा के तीनों पैरों पर अंगुष्ठ द्वारा गिनकर ६ बार णमो. कार मन्त्र का जाप्य करे । इस प्रकार १२ बार करने से १०८ बार जाप्य होजायगा । माला हो तो ऊपरके ३ दानों पर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र भ्यः नमः इसे तीन बार पढ़ लेवे । पश्चात १२ भावना पढ़े और अपने स्वरूप का एवं कर्तव्य का विचार करे । १०६ वार जाप्य करने का प्रयोजन संरम्भ, समारम्भ; आरम्भ ३४ मन; बचन; काय ३४ कृत; कारित; अनुमोदन ३४ क्रोध; मान माया लोभ ४ = १०८ इन परस्पर गुणित पापों को नष्ट करने से है। १. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) सामायिकपाठ भाषा पं० महाचन्द्रजी कृत प्रथम प्रतिक्रमणकर्म । काल अनंत भ्रम्यो जग में सहिये दुख भारी । जन्म मरण नित किये पाप को व्है अधिकारी | कोडिभवांतर मांहि मिलन दुर्लभ सामायिक । धन्य आज मैं मये। योग मिलियो सुखदायक ॥ हे सर्वज्ञ जिनेश किये जे पाप जु मैं अब । ते सव मन बच काय योगकी गुप्ति बिना लभ ॥ आप समीप हजूरमाहिं मे खडो खड़ो सब | दोष कहूं सो सुनो करो नठ दुःख देहिं जब ॥ क्रोध मान मद लोभ मोह माया वश प्रानी । दुःखसहित जे कर्म किये दया तिनकी नहिं श्रानी ॥ बिना प्रयोजन एकइन्द्रि बिगति चउ पंचेन्द्रिय । आप प्रसादहि मिटै दोष जो लग्यो आपस में इक ठार थापिकरि जे पेलि दिये पगतले दाबि करि प्राण हरीने ॥ आप जगतके जीव जिते तिन सबके नायक । मोहि जिय ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com · दुख दीने । • Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) अरज करूँ मैं सुनो दोष मेटो दुखदायक ॥ अंजन आदिक चोर महा घनघोर पापमय । तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय ।। मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि । यह पडिकोणों कियो श्रादि षटकर्म माहि विधि ॥ द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म । इसके आदि या अन्त में आलोचनापाठ वोलकर फिर ___ तीसरे सामायिक कर्म का पाठ करना चाहिए । जो प्रमादवश होय विराधे जीव घनेरे । तिनको जो अपराध मयो मेरे अघढेरे ।। सो सब झूठों होहु जगतपति के परसादै । जा प्रसादतें मिले सर्व सुख दुख न लाथै ।। मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ । किये पाप अघढेर पापमति होय चित्त दुठ ॥ निंद हूं मैं बारबार निज जियको गरहूं । सब विधि धर्म उपाय पाय फिरि पापहि करहू ।। दुर्लम है नर जन्म तथा श्रावक कुल भारी । सत्संगति सयोग धर्मजिन श्रद्धाधारी ।। जिन पचनामृत धार समावर्ते जिनवानी । तो हू जीव मँघारे धिक् धिक धिक् हम जानी ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९१) इंद्रिय लपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिम करें तिसी विधि हिंसक व्है अब। गमनागमन करतो जीव विराधे मोले । ते सब दोष किये निंदं अब मन वच तोलो । आलोचन विधि थकी दोष लागै जु घनेरे । ते सब दोष विनाश होउ तुमतै जिन मेरे । बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता । ईशादिकतें भये निदिये जे मयभीता ॥ तृतीय सामायिक भावकर्म । सब जीवन में मेरे समताभाव जग्यो है। सव जिय मो सम समता राखो भाव जग्यो है। आत रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूं सामायिक । संयम मो का शुद्ध होय यह भाव वधायक ।। पृथ्वी जल अरु भग्नि वायु चउ काय वनस्पति । पंचहि थावरमाहिं तथा त्रसजीव से जित । बेइंद्रिय तिय चउ पंचेन्द्रिय मांहि जीव संब। तिनसे क्षमा कराऊं मुझ पर चमा को अब । इस अवसर में मेरे सब सम कंचन अरु प्रख महल मसान समान शत्रु अरु मित्राहि समगण । जामन मरण सभान जानि हम 'समता कीनी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायिक का काल जितै यह भाव नवीनी । मेरो है इक पातम तामें ममत जु कीनो। और सबै मम भिन्न जानि समता रसभीनों ॥ मात पिता मुत बंधु मित्र तिय श्रादि सब यह । मोतै न्यारे जानि जथारथ रूप को गह ॥ मैं अनादि जग जाल मांहि फँसि रूप न जाण्यो । एकेंद्रिय दे आदि जन्तु को प्राण हराएयो॥ ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह अरजी । भवभव को अपराध क्षमा कीज्यो करि मरजी॥ चतुर्थ स्तवनकर्म । नौ रिषभ जिनदेव अजित जिन जीति कर्म को। सभव भवदुखहरण करण अभिनंद शर्म को.॥ मुमतिसुमतिदातार तार भवसिधु पार कर । पदमप्रभ पद्माभ मानि भवमोति प्रीति घर ॥ श्री सुपार्श्व कृतिपाश नाश भव जास शुद्धकर । श्री चंद्रप्रभ चंद्रकांतिसम देह कांतिधर ।। पुष्पदंत दमि दोपकोश भविपोष रोषहर । शीतल शीतल करण भवताप दोषहर ॥ श्रेयरूप जिनश्रेय ध्येय नित सेय भव्यजन । वासुपूज्य शत पूज्य वासवादिक भव भयहन ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (9) विमल विमल मतिदन अंतगर्त है अत:निन। धर्म शर्म शिवकरन शांति जिन शौति विधायिन / / कुन्थु कुन्थुमुख जीवपाल भरनाथ जालहर / मल्लि मल्लसम मोहमन्ल मारण प्रचार घर / मुनिसुव्रत ब्रतकरण नमत सुर संघहि नमिजिन / नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ माहि ज्ञान धन / / पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपलसम मोक्ष रमापति / बद्धमान जिन नमू ब मव दुःख कर्मकृत // या विधि मै जिन संघरूप चउवीस संख्यधर / स्तऊ नमूं हं बार बार बन्द। शिव सुखकर // पंचम बंदना कर्म। वन्द मैं जिनवीर धीर महावीर सुसन्मति / वईमान अतिवीर वंदिहों मन वच वन कृत // त्रिशला तनुज यद्देश घीश विद्यापति बंद / वन्दं नित प्रति कनकरूप तनु पापनिकन्दं // सिदारथ नृपनन्द द्वन्द दुख दोष मिटावन / दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जग जीव उधारन / / कुण्डलपुर करि जन्म जगत बिय भानन्द कारन। वर्ष बहत्तीर भायु पाय सब ही दुख टारना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्त हस्त तनु तुंग मंग कृत जन्म मरण भय / बाल ब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय / / दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीव धन / आप वसे शिव मांहि ताहि बंदा मन वच तन / / जा के वंदन थकी दोष दुख दूर हि जावे : जाके वंदन थकी मुक्ति तिय सन्मुख आबै // जाके वंदनथकी वंद्य होवे सुरगन के। ऐसे वीर जिनेश बन्दि हूं क्रमयुग तिनके // सामायिक षटकर्म माहिं वंदन यह पंचम / वन्दों वीर जिनेन्द्र इन्द्रशत वंद्य नंद्य मम / / जन्म मरण भय हरो करो अघ शांति शांतिमय / मैं अघकोश सुपोष दोष को दोष विनाशय / / छठा कायोत्सर्ग कर्म / / कायोत्सर्गविधान करूं अंतिम सुखदाई / कायत्यजनमय होय काय सबको दुखदाई // पूरब दक्षिण नमूं दिशा पश्चिम उत्तरमैं / जिनगृह वंदन करूं हरूं भव पापतिमिर मैं // शिरोनति मैं करूं नमू मस्तक कर धरिकै / आवर्चादिक क्रिया करूं मनवच मद हरिकै / तीन लोक जिनभवनमाहिं जिन हैं जु अकृत्रिम / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (65) कृत्रिम हैं द्वयअर्द्ध दीप माही बन्दो जिम // पाठकोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्याएँ / चार शतक परि असी एक जिन भन्दिर जाएं / व्यंतर ज्योतिषमाहि संख्य रहते जिन मंदिर / ते सब वंदन करूं हरहु मम पाप संघकर // सामायिक सम नाहि भार कोउ बर मिटायक। सामायिक सम नाहिं और कोउ मैत्री दायक / श्रावक अणुव्रत आदि अत सप्तम गुण थानक / यह आवश्यक किये होय निश्चय दुख हानक / / जे भवि भातम काज करण उद्यम के धारी। ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी // राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब / बुध 'महाचन्द्र' विलाय जाय ताते कीजो अब / / aaz Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (66) आलोचना पाठ दोहा बन्दो पांचों परमगुरु, चौबीसों जिनराज / करूं शुद्ध आलोचना, शुद्धि करन के काज // चाल छन्द सुनिये जिन अरज हमारी, हम दोष किये अतिभारी। तिनकी अब निवृति काज, तुम शरण लही जिनराज // इक वे ते चउ इन्द्री वा, मन रहित सहित जे जीवा / तिनकी नहिं करुणा धारी, निर्दय है घात विचारी॥ ममरम्भ समारम्भ, प्रारम्भ, मन वच तन कीने प्रारम्भ / कृतकारित मोदन करके, क्रोधादि चतुष्टय घरकै॥ शत प्राउ जुइन मेदनते, अघ काने परछेदनते / तिनकी कई. कोलों कहानी, तुम जानत केवल ज्ञानी॥ विपरीत एकान्त विनय के, संशय अज्ञान कुनय के। वश होय घोर अघ कीने, बचते नहीं जात कहीने।। कुगुरुन की सेवा की नी, केवल अदया कर भीनी / या विधि मिथ्यात बढ़ायो, चहुँगति मधि दोष उपायो॥ हिंसा पुनि झूठ जो चोरी, परबनिता (यामानव) से हग जोरी। प्रारम्म परिग्रह भीने, पनपाप जु याविधि कीने // सपरस रसना घ्राणनको, दृगकान विषय सेवन को। बटुकर्म किये मनमाने, कुछ न्याय अन्याय न जाने / फल पंच उदम्बर खाये, मध मांस मधु चित चाहे। नहिं अष्टमूल गुण धारे, सेये कुविसन दुःखकारे // बाईस अभक्ष जिन गाये, सोभी निशदिन मुजाये। कछु मेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों कर उदर भरायो॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6 ) अनन्तानुबन्धी सो जानो, प्रत्यास्यान, अप्रत्याख्यानो। संज्वलन चौकडी गुनिये, सब मेद जु षोडश मुनिये // परि हास भरति रति, शोक भय खानि ति वेद संयोग। पनवीस.जुमेद भये इम, इनके वश याप., किये हम // निद्रा वश शयन कराया, स्वप्ने में दोष लगाया। फिर जागि विषय वन धायो,नाना विधि विषफल बायो॥ श्राक्षार बिहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा। बिन देखे धरा उठाया, विन शोधा भोजन खाया.॥ तबही परमाद सतायो, बहुविधि विकलर उपाजायो / कुछ सुचि बुधि नहि रही है, मिथ्या मति.छाय गई है। मर्यादा तुम ढिंग लीनी, ताह में दोष जुनी / मिन्न-भिन्न अब कैसें कहिये, तुम ज्ञान विर्षे सब पदये। हाहा मैं दुष्ठ अपराधी, प्रस जीवनराशि विराधी। थावर की जतन न कीनी, उर में करुणा नहिं लीनी।। पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जाँगा चुनाई। बिन छालो पानी ढोल्यो, पंचाते.पवन विलोल्यो। हाहा मैं प्रदयाचारी, बहुहरित जु काय विदारी। यामधि जीवन के संदा, हम खाये धरि मानन्दा / / हा हा परमाद बसाई, बिनः देखे अग्नि जलाई। ता मध्य जीव जो भाये, ते इ.परलोक सिपाये। बीघो अनयति पिसायों, इंधन विन शोधि जलायो। झाडू ले जागा बुहारी; चिटि आदिक जीव विदारी।। जल छानि जिबानी कीनी, सोरपुनि डार जु दीनी / नहीं जल-वामक गाई, किरिया निवासपा जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि कुना बहु घात करायो। नदियों में चीर धुवाय, कोलों के जीव मराये // Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (18) अन्नादिक शोध कराई, ता मध्य जीव निसराई / तिनको नहिं यत्न करायो, गलियारे धूप डरायो / फिर द्रव्य कमावन काजे, बहु प्रारम्भ हिंसा साजे / की ये तृष्णा वश भाले, करुणा नहिं रंच विचारी॥ इत्यादिक पाप अनन्ता, हम कीने श्री भगवन्हा / सन्तति चिरकाल उपाई, वाशी ते कहिय न जाई // ताको जु उदय अब प्रायो, नाना विधि मोहि सतायो। फल भुंजत जो दुख पाऊँ, बच से कैसे कर गाऊँ। तुम जानत केवल ज्ञानी, दुख दूर करो शिव थानी / हम तो तुम शरण लही है, जिन तारण विरद सही है। एक ग्रामपती जो होवे, सो भी दु:खिख दुःख खोवें। तुम तीन भवन के स्वानी, दुःख मेटो अन्तर्यामी / द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो। अञ्जन से किये अकामी, दुःख मेटो अन्तर्यामी॥ मेरे औगुण न चितारो, प्रभु अपना विरद निहारो। सब दोष रहित कर स्वामी, दुख मेटो अन्तर्यामी॥ इन्द्रादिक पद नहिं चाहू, विषयों में नाहि लुभाऊं गगदिक दोष हरी जे, परमातम निज पद दीजे // दोहा दोष रहित जिन देव जी, निजपद दीजे मोहि / सब जीवन को मुख बढे, भानन्द मंगल होहि // अनुभव माणिक पारखी, जौहरी आप जिनन्द / ये ही वर मोहि दीजिये, चरण शरण मानन्द // Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू निरोतीलाल जैन मैनेजर द्वारा श्री स. हु. दि. जैन पारमा. संस्थाओं के जवरीबाग प्रेस, इन्दौर में मुद्रित / Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થ ) zichbllo なたに Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com