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(८४) ज्यों तरवर पै रैन बसेरा, पंछी मा करते ॥ कोस कोई दो कोस कोई उड फिर थक थक हारे । जाय अकेला हंस संग में, कोई न परमारै।
अन्यत्व भावना । मोहरूप'मृग तृष्णा ज़ग मैं मिथ्या जल चमकै। चेतन नित भ्रम में उठ उठ, दौडे थक थककै ॥ जल नहि पावै प्राण गमावै, भटक भटक मरता । वस्तु पराई माने अपनी; भेद नहीं करता । तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी । मिले अनादि यतनत, बिछुडै, ज्यों पय अरु पानी।। रूप तुम्हारा प्लबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जौलों पुरुष थकै न तौलों उद्यमों टरना ॥
अशुचि भावना । तू नित पेखि यह सूख ज्यों, धोवे त्यों मैली। निश दिन करै उपाय देहका, रोग दशा फैली ।। मात पिता रज वीरज मिलकर, बनी वेह तेरी। मांस हाइ नशाहू राधकी, प्रगट व्याधि घेरी ॥ काना पडद्य पडा हाथ, यह चूसै तौं रोवै। फलै अनन्त जु धर्मध्यान की, भूमि विषे बोवें। केशर चन्दन पुष्प सुगंधित. वस्तु देख सारी ॥ देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी।
श्राव भावना। ज्यों सर जल पावत मोरी त्यों, आश्रय कर्मनको।
दर्वित जीक प्रदेश गहै जब पुरगल भरमा को। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com