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अशरण भावना। काल सिंह ने मृग चेतन को घेरा भव वन में । नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मनमें ॥ मन्त्र तन्त्र सेना धन सम्पति, राज पाट छुटे । वश नहीं चलता काल लुटेरा, काय नगर लुटे ।। चक्र रतन हलघर सा भाई काम न पाया। एक तीर के खागत कृष्ण की, विनश गई काया ।। देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिरे भटकता चेतन, यु ही उमर खोई॥
संसार भावना । जनम मरण अरु जरा रोग से, सदा दुखी रहता। द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भष, परिवर्तन सहता ॥ छेदन मेदन नरक पशु गति, बघ बन्धन सहना । राग उदय से दुख सुरगन में, कहां सुखी रहना। भोग पुण्य फल हो एक इन्द्री, क्या इसमें खाली। कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली। मानुष जन्म भनेक विपत्ति मय, कहीं न सुख देखा। पंचम ग्रति सुख मिले, शुभाशुभ का मेटो लेखा ।
एकत्व भावना। जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख दुख का भोगी।
और किसी का क्या इकदिन यह, देह जुदी होगी। कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा। अपने अपने सुख को रोवै, पिता पुत्र दारा॥ ज्यों मेले में पंथीजन मिति नेह फिरें घरते। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com