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बारह भावना /
( मंगतरामजी कृत ) (छन्द विष्णुपद )
दोहा -- बन्दु श्री श्रईत पद, बीतराग विज्ञान | वरगं बारह भावना, जग जीवन हित जान ॥
कहां गये चक्री जिन जीता, भरतखण्ड सारा । कहां गये वह रामरु लछमण, जिन रावन मारा ॥ कहां कृष्ण रुकमिनि सत्यभामा, अरु सम्पत्ति सगरी । कहां गये वह रंग महल, अरु सुबरन की नगरी ॥
नहीं रहे वह लोमी कौरव, जूझ मरे रन में । गये राज तज पांडव वनको, अग्नि लगी तनमें ॥ मोहनींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को । हो दयाल उपदेश करें गुरु बारह भावन को ॥
अनित्य भावना ।
सूरज चांद छिपे निकले ऋतु फिर फिर कर आवै । प्यारी श्रायु ऐसी बीते, पता नहीं पावै ॥ पर्वत पतित नदी सरिता जल, बहकर नहिं घटता । स्वांस चलत यो घटे काढ ज्यों भारेसों कटता ॥
श्रीस बून्द ज्यों गले धूप में, वा अंजुलिपानी । छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्र जाल आकाश नगर सम जग सम्पति सारी । अथिर रूप संसार विचारों, सब नर अरु नारी ॥
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