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(८५) भावित आश्रव भाव शुभाशुभ,निशिदिन चेतनको ॥ पाप पुण्य को दोनों करता, कारण बन्धन को । पन मिथ्यात योग पंद्रह द्वादश अविरत जानो। पंचरु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मामो ॥ मोहमाव की ममता टारै, पर परणत खेते। करै मोखका यतन, निराश्रव बानी जन होते ॥
संवर भावना। ज्यों मोरीमें डाट लगावै, तब जल रुक जाता। त्यों पाश्रव को रोकै, संवर, क्यों नहि मन लाता ॥ पंच महाव्रत समिति गुप्तिकर, वचन काय मनको। दश विधि धर्म परीषह बाइस, बारह भावन को॥ यह सब भाव सतावन, मिलकर, पाश्रव को खोते । सुपन दशा से जागो चेतन, कहां पडे सोते ॥ भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध भावनसंवर पावै । डांट लगत यह नांव पडी मझधार पार जावै॥
निर्जरा भावना । ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पडै भारी। संवर रोकै, कर्म निर्जरा, है सोखनहारी। उदय मोग सविपाक समय, पकजाय श्राम डाली। दूजी है अविपाक पका, पाल विर्षे माली। पहली सबके होय नहीं, कुछ सरै काम तेरा दूजी करै लु उगम करिके, मिटे.जमत फेरा। संवर सहित करो तप प्रानी, मिलै मुकति पनी। इस दुलहनकी यही सहेली, जानै सब बानी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com