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________________ (८८) और १ शिरोनति करे। हाथ जोड़कर बांये हाथ की तरफ नीचे घुमाकर दाहिने हाथ की ओर ऊपर लेजाने को आवतन और हाथ जोड़कर शिर मुकने को शिरोनति कहते हैं । उक्त क्रिया उस दिशामें स्थित पंचपरमेष्ठी और जिन चैत्य चैत्यालयों को नमस्कार करनेके लिए है अतःबाबत शिरोनति के साथ पूर्वदिशा सम्बंधी पंच परमेष्ठी और जिनचैत्यालयों को मन,बचन,और कायसे नमस्कारकरता हूँ" यह कहे । फिर दूसरी दिशा दक्षिण (यदि पूर्व से प्रारम्भ किया, हो तो) में और पश्चिम तथा उत्तरमें भी इसीप्रकार करे। फिर पूर्व दिशामें उक्त आसनों में से किसी एकको स्वीकार कर सामायिक शुरू करे।इससमय सामायिकपाठ और आलोचनापाठ पढ़े। फिर सूतकी माला से अथना बैठा होय तो अपने बांये हाथ के ऊपर सीधे हाथ को रखकर सीधे हाथ में अंगुष्ठ द्वारा सीधे हाथकी अनाभिका अंगुली के बीचके पौर को और उससे ऊपर का पौर गिनकर फिर कनिष्ठा के ३ पौर और फिर अनामिका का नीचे का पौर, उसके बाद नीचे से मध्यमा के तीनों पैरों पर अंगुष्ठ द्वारा गिनकर ६ बार णमो. कार मन्त्र का जाप्य करे । इस प्रकार १२ बार करने से १०८ बार जाप्य होजायगा । माला हो तो ऊपरके ३ दानों पर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र भ्यः नमः इसे तीन बार पढ़ लेवे । पश्चात १२ भावना पढ़े और अपने स्वरूप का एवं कर्तव्य का विचार करे । १०६ वार जाप्य करने का प्रयोजन संरम्भ, समारम्भ; आरम्भ ३४ मन; बचन; काय ३४ कृत; कारित; अनुमोदन ३४ क्रोध; मान माया लोभ ४ = १०८ इन परस्पर गुणित पापों को नष्ट करने से है। १. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034887
Book TitleJain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherDhannalalji Ratanlal Kala
Publication Year1953
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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