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________________ (६१) पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विध भाया मिष्टमहा । पूनँ थूति गाऊँ, प्रीति बढाऊँ, सुधा नशाऊँ हर्ष लहा। तीर्थ. ॥ नैवेद्यं ॥५॥ कर दीपक-जोत, तमक्षय होतं, ज्योति उदोतं तुमहि चहै । तुम हो परकाशक,भरमविनाशक हम घट भासक, ज्ञानबैड़ ।। तीर्थ. ॥ दीपं ॥ ६॥ शुभगंध दशोंकर, पावकमें धर, धूप मनोहर खेवत है। सब पाप जलावे, पुण्य कमावे, दास कहावे सेवत है ।। ___ तीर्थ ॥ धूपम् ॥७॥ बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी न्यावत है। मन वांछित दाता मेट असाता,तुम गुन माता, ध्यावत हो । तीथे. ॥फलम् ॥ ८॥ नयनन सुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वलभारी, मोलधैर । शुभगधसम्हारा, वसननिहारा, तुम तन धारा ज्ञान करें । तीर्थ ॥अध्यम्॥६॥ जलचंदन अक्षत फूल चरू, चत, दीप धूप अति फल लावै । पूजा को ठानत जो तुम जानत, सो नर धानत सुखपावै ।। तीर्थ. ॥ अय॑म् ॥१०॥ जयमाला। सोरठा । ओंकार ध्वनिसार, द्वादशांगवाणी विभल । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034887
Book TitleJain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherDhannalalji Ratanlal Kala
Publication Year1953
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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