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________________ (6 ) अनन्तानुबन्धी सो जानो, प्रत्यास्यान, अप्रत्याख्यानो। संज्वलन चौकडी गुनिये, सब मेद जु षोडश मुनिये // परि हास भरति रति, शोक भय खानि ति वेद संयोग। पनवीस.जुमेद भये इम, इनके वश याप., किये हम // निद्रा वश शयन कराया, स्वप्ने में दोष लगाया। फिर जागि विषय वन धायो,नाना विधि विषफल बायो॥ श्राक्षार बिहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा। बिन देखे धरा उठाया, विन शोधा भोजन खाया.॥ तबही परमाद सतायो, बहुविधि विकलर उपाजायो / कुछ सुचि बुधि नहि रही है, मिथ्या मति.छाय गई है। मर्यादा तुम ढिंग लीनी, ताह में दोष जुनी / मिन्न-भिन्न अब कैसें कहिये, तुम ज्ञान विर्षे सब पदये। हाहा मैं दुष्ठ अपराधी, प्रस जीवनराशि विराधी। थावर की जतन न कीनी, उर में करुणा नहिं लीनी।। पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जाँगा चुनाई। बिन छालो पानी ढोल्यो, पंचाते.पवन विलोल्यो। हाहा मैं प्रदयाचारी, बहुहरित जु काय विदारी। यामधि जीवन के संदा, हम खाये धरि मानन्दा / / हा हा परमाद बसाई, बिनः देखे अग्नि जलाई। ता मध्य जीव जो भाये, ते इ.परलोक सिपाये। बीघो अनयति पिसायों, इंधन विन शोधि जलायो। झाडू ले जागा बुहारी; चिटि आदिक जीव विदारी।। जल छानि जिबानी कीनी, सोरपुनि डार जु दीनी / नहीं जल-वामक गाई, किरिया निवासपा जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि कुना बहु घात करायो। नदियों में चीर धुवाय, कोलों के जीव मराये // Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com - -
SR No.034887
Book TitleJain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathulal Jain
PublisherDhannalalji Ratanlal Kala
Publication Year1953
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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