________________ (18) अन्नादिक शोध कराई, ता मध्य जीव निसराई / तिनको नहिं यत्न करायो, गलियारे धूप डरायो / फिर द्रव्य कमावन काजे, बहु प्रारम्भ हिंसा साजे / की ये तृष्णा वश भाले, करुणा नहिं रंच विचारी॥ इत्यादिक पाप अनन्ता, हम कीने श्री भगवन्हा / सन्तति चिरकाल उपाई, वाशी ते कहिय न जाई // ताको जु उदय अब प्रायो, नाना विधि मोहि सतायो। फल भुंजत जो दुख पाऊँ, बच से कैसे कर गाऊँ। तुम जानत केवल ज्ञानी, दुख दूर करो शिव थानी / हम तो तुम शरण लही है, जिन तारण विरद सही है। एक ग्रामपती जो होवे, सो भी दु:खिख दुःख खोवें। तुम तीन भवन के स्वानी, दुःख मेटो अन्तर्यामी / द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीता प्रति कमल रचायो। अञ्जन से किये अकामी, दुःख मेटो अन्तर्यामी॥ मेरे औगुण न चितारो, प्रभु अपना विरद निहारो। सब दोष रहित कर स्वामी, दुख मेटो अन्तर्यामी॥ इन्द्रादिक पद नहिं चाहू, विषयों में नाहि लुभाऊं गगदिक दोष हरी जे, परमातम निज पद दीजे // दोहा दोष रहित जिन देव जी, निजपद दीजे मोहि / सब जीवन को मुख बढे, भानन्द मंगल होहि // अनुभव माणिक पारखी, जौहरी आप जिनन्द / ये ही वर मोहि दीजिये, चरण शरण मानन्द // Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com