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(७४) भव भव मैं तन पुरुषतनो घर, नारी हू तन लीनो। भव भव में मैं भयो नपुंसक, आतम गुण नहिं चीनी ॥ भव भव में सुर पदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। । भव भव में गति नरकतनी घर, दुख पाये विधि योगे। भव भव मैं तिचंच योनि घर, पायो दुख अति भारी । भव भव में साधर्मी जन को, संग मिलो हितकारी ॥ भव भव मैं जिन पूजा कीनी, दान सुपात्रहिं दीनो । भव भव में मैं समवशरण में, देखो जिन गुण भीनो ॥ एती वस्तु मिली भव भव मैं, सम्यक्गुण नहीं पायो। ना समाधियुत मरण कियो मैं, तातै जग भरमायो॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरणहि कीनो। एक वारमी सम्यक् युत में, निज प्रातम महिं चीनो॥ जो निज पद का ज्ञान होय तो, मरण समय दुख काई । देह विनासी मैं निज भासी, ज्योति स्वरूप सदाई ॥ विषय कषाय नि के बश होकर, देह श्रापनो जानो। कर मिथ्या सरधान हिये बिच, आत्तम नाहि पिछानो। यों क्लेश हिय धार मरण कर, चारों गति भरमायो । सम्यक्दर्शन, ज्ञान चरिघ मैं, हिरदय में नहिं लायो॥ प्रब या अरज करूं प्रभू सुनिबे, मरण समय यह मांगो। रोग जनित पीड़ा मत होवो, अरु कषाय मत जागो॥ ये मुझ मरण समय दुख दाता, इन हर साता कीजे । जो समाधियुत मरण होय मुझ, अरु मिथ्यागद छीजे॥ यह तन सात कुधात मई है, देखत ही घिन आवे । चर्म लपेटी ऊपर सोहै, भीतर विष्ठा पावे ॥
अति दुर्गंध अपावन सों यह, मूरख प्रीति बढ़ावे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com