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(७५) देह विनासी यह अविनासी, नित्य स्वरूप कहावे॥ यह तन जीर्णकुटी सम प्रातम, याते प्रीति न कीजे। नूतन महल मिले जब भाई, तब यामें क्या छीजे॥ मृत्यु होन से हानि कौन है, याको भय मत लाओ। समता से जो देह तजोगे, तौ शुभ तन तुम पाओ। मृत्यु मित्र उपकारी तेरा, इस अवसर के माहीं । जीरन तन से देत नयो यह, या सम साहू नाहीं। यासे ही इस मृत्यु समय पर, उत्सव अति ही कीजै ॥ क्लेश भाव को त्याग सयाने, समता भाव घरीजे । जो तुम पूरव पुण्य किये हैं, तिन को फल सुखदाई ॥ मृत्यु मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग सम्पदा भाई । राग रोष को छोड़ सयाने, सात आसन दुख दाई । अन्त समय में समता घारो, पर भव पंथ सहाई । कर्म महा दुठ वैरी मेरो, तासे तो दुख पावे। तन पिंजर में बंद कियो मोहि, यासों कोन छुहावे ॥ भूख तुषा दुख मादि कनेकन, इस ही तन में गाढे । मृत्युराज अब आप दया कर, तन पिंजरे से काढे ॥ नाना वस्त्राभूषण मैंने, इस तन को पहिराये। गंध मुगंधित अतर लगाये, षटस अशन कराये ॥ रात दिना में दास होयकर, सेव करी तन केरी। सो तन मेरे काम न भायो, भूल रही निधि मेरी॥ मृत्युराज को शरण पाय तन, नृतन ऐसो पाऊं। जामे सम्यक् रत्न तीन, साहि, काठों कर्म खपाऊं ॥ देखो तन सम और कुतनी, नाहि सु या जग माही।
मृत्यु समय में ये ही परिजन, सही हैं दुखदाई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com