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(२४)
चार्य पिता से यह मन्त्र कहलावें। " श्रीमद्य जंबूद्वीपे भरत.
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क्षेत्रे आर्यखराडे अमुक नगरे अस्मिन् स्थाने अमुक वीर निर्वाण संवत्सरे अमुक मासे अमुक तिथौ अमुकं वासरे जैन धर्म परिपालकाय अमुक गोत्रोत्पन्नाय अमुकस्य पुत्राय अमुकस्य पौत्राय अमुक नाम्ने कुमाराय जैनधर्म परिपालकस्य अमुक गोत्रोत्पन्नस्य श्रमुकस्य पुत्र अमुकस्य पौत्र अमुक नाम्नीं इमां कन्या प्रददामि । श्र नमोऽईते भगवते श्रीमते वर्धमानाय श्रीषलायुरारोग्य संतानामिवर्धनं भवतु भवींदवीं हूं सः स्वाहा ।
उक्त प्रदान और वरण की विधि में प्रदान से कन्यादान का मतलब, जैसा कि अन्य संप्रदायों में माना जाता है वैसा यहां नहीं है । कन्या श्रन्य वस्तुनों की भांति दान देने की वस्तु नहीं मानी गई है। यहां तो सिर्फ सबके सामने विवाह की एक विधि मात्र वतलाई है ।
हवन
प्रदान और वरण के
पश्चात् हवन के लिए स्थंडिल के. चारों ओर नीचे तीन बार लच्छा लपेटकर उस स्थंडिल पर समिधा जमाई जावे और चारों कोनों के दीपक प्रज्वलित कर कर्पूर वर के हाथ देकर " श्रीं श्रीं ओ ओ रं रं रं रं स्वाहा अग्नि स्थापयामि " इस मंत्र से दीपके द्वारा कैपूर प्रज्वलित कर संमिघा पर रखायें और गृह संथाचार्य घाई से घृत केंपकर संमिधा को ठीक करे ।
१ अमुक शब्द जहां जहां है वहां जो नाम हो वह लेना चाहिये ।
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