Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
View full book text ________________
(७८)
चारों परवी प्रोषध कीजे, अशन रात को त्यागो । समता घर दुरभाव निवारो, संयम सो अनुरागो ॥ अन्त समय में ये शुभ भावहि, होवें आनि सहाई । स्वर्ग मोक्ष फल तोहि दिखावे, रिद्धि देंहि अधिकाई ॥ खोटे भाव सकल जिय त्यागो, उर में समता लाके । जा सेती गति चार दूर कर, वसो मोक्षपुर जाके ॥ मन थिरता करके तुम चिंतो, चौ आराधन भाई । येही तोको सुख की दाता, और हितू कोऊ सुख नांई ॥ श्रागे बहु मुनिराज भये हैं, तिन गही थिरता भारी । बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥ तिनमें कछु इक नाम कहूँ मैं, सो सुन जिम चित लाके । भाव सहित अनुमोदे तासैं, दुर्गति होय न जाके ॥ अरु समता निज उर में श्रावै, भाव अधीरज जावें । यों निशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये बिच लावैं ॥ धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी । एक स्यालनी जुग बच्चा जुत, पाव भख्यो दुखकारी ॥ यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, आराधन चितधारी । सो तुम्हरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव भारी ॥ धन्य धन्य सुकौशल स्वामी, व्याघ्रीने तन खायो । तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहिं, आतम सों हित खायो ॥ यह उपसर्ग सह्यो घरथिरता, आराधन चितधारी । तो तुम्हारे. देखो गजमुनि के शिर ऊपर, विप्र अगिनि बहु बारी ॥ शीस जलें जिम लकड़ी तिनको, तो भी नाहिं चिधारी । यहउपसर्ग सह्यो घरथिरता, आराधन चितधारी ॥ तोतुम्ह रे.
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
Loading... Page Navigation 1 ... 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106