Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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( ७७)
उपजै विनसे सो यह पुदगल, जाना याको रूपी ॥ दृष्टनिष्ट जे तो सुख दुख हैं, सो सब पुदगल लागे । मैं जब अपनो रूप विचारों, तब वे सब दुख भागे ॥ बिन समता तन नन्त घरे मैं, तिन में यह दुख पायो । शस्त्र घात तैं नन्त बार भर, नाना योनि भ्रमायो ॥ बार अनन्तहि अग्नि मांहि जर मूवो सुमति न पायो । सिंह व्याघ्र अहि नन्तवार मुझ, नाना दुःख दिखायो || बिन समाधि ये दुख लहे मैं, अब उर समता आई । मृत्यु राज को भय नहिं मानो, देवे तन सुखदाई ॥ यातें जब लग मृत्यु न श्रावै, तब लग जप तप कीजे । जप तप बिन इस जग के माहीं, कोई भी ना सीजे ॥ स्वर्ग संपदा तप से पावे, तप से कर्म नसावे ।
तप६ी से शिवकामिन पति है, यासी पति चित लावै ॥ अब मैं जानी समता बिन मुझ, कोऊ नाहीं सहाई । मात पिता सुत वांधव तिरिया, ये सब हैं दुखदाई ॥ मृत्यु समय में मोह करें ये, तातैं आरत हो ।
भारत तें गति नीची पावै, यों लक्ष मोह तजो है ॥ ओर परिग्रह जेते जग में, तिन से प्रीति न कोजे ।
पर भव में ये संग न चालें, नाहक भारत कीजे ॥ जो जो वस्तु लसत हैं ते पर, तिन से नेह निवारो । पर गति में ये साथ न चालें, ऐसो, भाव, विचाहो ॥ जों पर भव में संग चलें तुझ, तिन से प्रीति सु कीजे । पंच पाप तज समता धारों, दान चार विध दीजे ॥ दशलक्षण मयं धर्म घरो उर, अनुकंपा चित खावो ।
षोडश कारण नित्य चिन्तवो, द्वादश भावन भावो ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com