Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(८६)
लोक भावना । लोक अलोक प्रकाश माँहि थिर, निराधार जानो ॥ पुरुषरूप कर कटी भवे, षट् द्रव्यनसों मानो। इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है। जीवरु पुद्गल नाचै यामै, कर्म उपाधी है। पाप पुण्य सों जीव जगत मैं, नित सुख दुःख भरता ॥ अपनी करनी श्राप भरै, सिर औरन के धरता। मोहकर्म को नाश मेरकर, सब जग की भाशा ॥ निज पदमैं थिर होय लोकके शीश करो बाला।
बोधिदुर्लभ भावना । दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु बसगति पानी । नरकाया को सुरपति तरसै सो दुर्लभ प्रानी ॥ उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ, धावक कुल पाना । दुर्लभ सम्यक, दुर्लभ संयम, पंचम गुण्ठाना ॥ दुलभ रत्नत्रय प्रागधन, दीक्षा का धरना । दुभि मुनिवर को ब्रतं पालन, शुद्धभाव करना । दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावै । पाकर केवलज्ञान नहीं फिर इस भव में प्रावै ॥
धर्म भावना। षट् दरशम अरु बौद्धरु नास्तिक ने जग को लूटा । मूसा ईसा और मुहम्मद का मजहब भूठा हो सुछन्द सब पाप करें सिर करता पाये। कोई छिलक कोई करता से, अगमैं मटका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com