Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(११) तज ममता अरु भाठों मद को, जोतिस्वरूपी ध्यावो ॥ जो कोई नित करत पयानो, ग्रांमान्तर के काजै। सो मी शकुन विचारै नीके, शुभके कारण साजै ।। मातपितादिक सर्व कुटुमसब, नीके शकुन बनावै । हलदी धनियां पंगी अक्षत, दूध दही फल लावै॥ एक ग्राम जाने के कारण, करें शुभाशुभ सारे । जब परगति को करत पयानों, तब नहिं सोचौ प्यारे॥ सर्वकुटुम जब रोधन लागे, तोहिं रुलावे सारे। ये अपशकुन करै सुन तोको, तू यों क्यों न विचार। अव परगति को चालत विरियां, धर्मध्यान उर आनो। चारों पाराधन मनमें आराधो, मोहतनो दुख हानों। होय निःशल्य तजो सब दुविधा, आतमराम सुध्यावो। जब परगतिको करहु पयानो, परम तत्त्व उर लायो। मोह जालको काट पियारे, अपनो रूप विचारों। मृत्युमित्र. उपकारी तेरो, यो उर निश्चय धारो।
दोहा
मृत्युमहोत्सव पाठको, पढो सुनो बुरिक्सन . सरधा घर नित मुख,लो, सूरचंद शिवथान ।। पंच उभय नव एकनभ संवत सो सुखवाय। आश्विन श्यामा सप्तमी, कहो पा मन लाय।।
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