Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

View full book text
Previous | Next

Page 95
________________ ( ८२ ) बारह भावना / ( मंगतरामजी कृत ) (छन्द विष्णुपद ) दोहा -- बन्दु श्री श्रईत पद, बीतराग विज्ञान | वरगं बारह भावना, जग जीवन हित जान ॥ कहां गये चक्री जिन जीता, भरतखण्ड सारा । कहां गये वह रामरु लछमण, जिन रावन मारा ॥ कहां कृष्ण रुकमिनि सत्यभामा, अरु सम्पत्ति सगरी । कहां गये वह रंग महल, अरु सुबरन की नगरी ॥ नहीं रहे वह लोमी कौरव, जूझ मरे रन में । गये राज तज पांडव वनको, अग्नि लगी तनमें ॥ मोहनींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को । हो दयाल उपदेश करें गुरु बारह भावन को ॥ अनित्य भावना । सूरज चांद छिपे निकले ऋतु फिर फिर कर आवै । प्यारी श्रायु ऐसी बीते, पता नहीं पावै ॥ पर्वत पतित नदी सरिता जल, बहकर नहिं घटता । स्वांस चलत यो घटे काढ ज्यों भारेसों कटता ॥ श्रीस बून्द ज्यों गले धूप में, वा अंजुलिपानी । छिन छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्र जाल आकाश नगर सम जग सम्पति सारी । अथिर रूप संसार विचारों, सब नर अरु नारी ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106