Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(५८)
छन्द धत्तानन्द । जय त्रिशला नन्दन, हरिकृत वंदन, जगदानंदन, चन्दवरं । भव तापनिकंदन तन कन मंदन, रहितसपंदन, नयनधरं ।।
छन्द त्रोटक) जय केवल भानुकला सदनं । भविकोक विकाशन कंदवनं । जगजीत महारिपु मोहवरे । रजज्ञानहगांबर चूरकरं ॥१॥ गादिक मंगल मंडित हो। दुख दारिदको नित खडित हो। जगांहि तुम्ही सतपंडित हो। तुमही भवभाव विहंडित हो। हरिवंश सरोजनि को रवि हो । बलवंत महंत तुमही कवि हो। लहि केवल धर्म प्रकाशकियो । अवलों सोई मारगराजति हो। पुनि आपतने गुनमांहि सही । मुर मग्न रहैं जितने सबहिं ।। तिनकी बनिता गुणगावत हैं । लय मानीन सो मन भावत हैं ।। पुनि नाचत रंग उमंग भरी । तुम भक्ति विष पग एम धरी ॥ झनन झननं झननं भननं । सुर लेत वहां तनन तननं ।। घनन घननं घन घंट बजै । हमदं दृमदं मिरदंग सजै ॥ गगनांगनगर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ।। धृगतां घृगतां गति बाजत है । सुरताल रसाल जु छाजत है ।। सनन सननं सननं नममें । इकरूप अनेक जुधारि भमैं । कई नारि सु बीन बजावति है । तुमरो जस उज्वल गावति है।
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