Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

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Page 76
________________ (६३) धत्ता। जा बानी के ज्ञान मैं, मुझे लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवंत हो, सदा देत हु धोक ॥ ओं ही श्री जिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै महाय॑म् निर्वपामीति स्वाहा ॥ सरस्वती स्तवन । जगन्माता ख्याता जिनवर मुखामोज उदिता । भवानी कल्याणी मुनि मनुज मानी प्रमुदिता ।। महादेवी दुर्गा दरनि दुःखदाई दुरगति । अनेका एकाकी द्वययुत दशांगी जिनमती ॥१॥ कहें माता तो को यद्यपि सबहि ऽनादि निधाना । कथंचित् तो भी तू उपजि विनशै यों विवरना । धरै नाना जन्म प्रथम जिनके बाद अबलों । भयो त्यों विच्छेद प्रचुर तुव लाखों बरसलों ॥ महावीर स्वामी जब सकल ज्ञानी मुनि भये। बिडोजा के लाये समवसृत में गौतम गये। तबै नाका रूपा भवजलधि मांही अवतरी। अरूपा निर्वार्णा विगत भ्रम सांची मुखकारी ॥ धरै है जे प्राणी नित जननि तो को हृदय में । करे हैं पूजा व मन बचन काया कहि नमें॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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