Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(७३) साढेतीन कोडि मुनिराय, तिनके चरन नमूं चित्तलाय ॥ वंशस्थल वनके ढिंग होय, पश्चिम दिशा कुंथुमिरि सोय । कुलभूषण देशभूषण नाम, तिनके चरणनि करूं प्रणाम । दशरथ रांजा के मुत कहें, देश कलिंग पांचसो लहे। कोटि शिला मुनि कोटि प्रमान, वंदन करूं जोर जुगपान ।। समवसरण श्री पार्श्व जिनंद, रेसंदीगिरि नयनानंद । वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते बन्दो नित धरम जिहाज ॥ तीन लोक के तीरथ जहां, नित प्रति वंदन कीजे तहां । मन वच कायसहित सिरनाय वंदन करहिं भविक गुणगाय ।। संवत मतरहसौ इकताल, आश्विन सुदी दशमी सुविशाल । 'भैया' वंदन करहि त्रिकाल, जय निर्वाणकांड गुणमाल |
समाधि-मरण भाषा पं. सूरजचन्दजी विरचित
(छन्द नरेन्द्र)
बंदों धी भरहंत परम गुरु, जो सबको सुखदाई। इस जग में दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई॥ अब मैं अरज करूं प्रभु तुमसे, कर समाधि पर मांही। अन्त समय में यह घर मांग, सो दीजे जगराई॥ भव भव में तन घार नये मैं, भव भव शुम संग पायो।
भव भव मैं नृप रिद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com