Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
View full book text ________________
(५६) करताल विष करताल धरै । सुरताल विशाल जु नादकरै । इन आदि अनेक उछाह मरी। सुरमक्ति करें प्रभुजी तुमरी॥ तुमही जगजीवन के पितु हो। तुमही बिन कारन ते हितु हो। तुमही सब विघ्न विनाशन हो।तुमही निजानन्द मासन हो। तुमही चित चिंतितदायक हो। जगमांहि तुम्हीं सबलायक हो। तुम्हरे पन मंगलमांहि सही जिय उत्तम पुन्य लियो सबही॥ हमको तुमरी सरनागत है, तुमरे गुन में मन पागत है ॥ प्रभु मो हिय श्राप सदा बसिये । जबलों वसुकर्म नहीं नसिये ॥ तबलों तुम ध्यान हिये वरतों, तबलों श्रुत चिंतन चित्तरतो ॥ वबलों व्रत चारित चाहतु हों, तबलों शुभभाव सुगाहतु हों ।। तबलों सत संगति नित्य रहो, तबलों मम संजम चित्त गहौ। जबलों नहि नाशकरों अरिकों शिव नारिवरों समता धरिको । यह द्यो तबलों हमको बिनजी,हम जाचतु हैं इतनी सुनजी॥ श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा, नागनरेशा भगति भरा । वृन्दावन ध्यावें विघन नशाव, वांछित पावै शर्मवरा ॥
ओं ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय महार्घ्य निर्वामि स्वाहा । श्री सन्मति के जुगलपद, जो पूलै घरि प्रीत । वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत ।
इत्याशीर्वादः । (पुष्पांजलि क्षेपे)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com
Loading... Page Navigation 1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106