Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ (१४) द्यानत सेवक जानके (हो) जगत लेहु निकार । सीमन्धर जिन आदि दे, बीस विदेह मझार ।। श्री. निनराज हो, भव तारण तरण. जिहाज। ओं ह्रीं श्री सीगंधरादि विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्योऽध्यम् । - कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयों का अर्घ-. गयन्ति जिन-चैत्यानि, विद्यन्ते भुवन-त्रये । तावंति सततं भक्त्या, त्रिः परीत्य नमाम्यहम् ॥ ओं ही श्री त्रिलोक्रांधि कृत्रिमाकृत्रिमजिन बिम्बेभ्योऽध्य निर्वामीति स्वाहा । नवदेव पूजन अरिहन्तसिद्धसाधुत्रितयं, जिनधर्मविम्बवचनानि । जिननिलयान्नवदेवान्, संस्थापये भावतो नित्यम् ॥१॥ ___ओं ही श्री नवदेवेभ्यः पुष्पांजलिं तिपामि । ये घाति-जाति-प्रतिघात-जातं, शक्रायलध्यंजगदेकसारम् । प्रपेदिरेऽनंतचतुष्टयं तान्, यजे जिनेन्द्रानिह कर्णिकायाम् ॥ ओं ही श्री अहत्परमेष्ठिने अय॑म् ॥१॥ निःशेषान्धक्षयलब्धशुद्ध,--बुद्धस्वभावन्निजसौख्यवृद्धान् । भाराधये पूर्वदले सुसिद्धान्, स्वात्मोपलब्ध्ये स्फुटमष्टधेष्ट्या । . . म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106