Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(३२) सकललोकविमोदनकारकैः,श्चरुवरैःसुसुधाकृतिधारकः परमः।
ओ ह्रीं श्री सप्तपरमस्थानेभ्यो नैवेद्यम् । तरलतारसुकांतिसुमुण्डनैः, सदनरत्नचरघखण्डनैः ॥परम.
ओ ही श्री सप्तपदस्थानेभ्यो दीपम् । अगुरुधूपभवेन सुगंधिना, भ्रमरकोटिसमेन्द्रियबंधिना ॥परमः॥ परमसप्तसुस्थानस्वरूपकं, परिमजामि सदाष्टविधार्चनैः ।।
ओ ह्रीं श्री सप्तपदस्थानेभ्यो धूपम् । सुखदपक्वसुशोभनसत्फलैः क्रमुकनिंबुकमोचसुतांगतैः॥परम.॥
ओ ह्रीं श्री सप्तपदस्थानेभ्यो फलम् । जिनवरागमसदगुरूमुख्यकान्, प्रवियजे गुरुसदगुण मुख्यकान् । मुशुभचन्द्रतरान् कुसुमोत्करैः समयसारपरान्पयसादिकः ॥६॥ ओ ह्रीं श्री सप्तपदस्थानेभ्योऽयम्।
गठजोड़ा। हवन और सप्तपदी पूजा के बाद जीवनपर्यन्त पतिपत्नी बनने वाले दम्पती में परस्पर प्रेमभाव का एवं लौकिक और धार्मिक कार्यों में साथ रहने का सूचक ग्रंथिबम्धन ( गठजोडा )किसी सौभाग्यवती (मुहागिनी) स्त्री के द्वारा कराना चाहिए। कन्या लुगडी (साडी) के पल्ले में १ चुभत्री, १ सुपारी, हल्दीगंठ, सरसों वा पुष्प रखकर उसे बांध ले और उससे वर के दुपट्टे के पल्ले को वांधदे।
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