Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(४५) मंगल गावें किन्नरी, देव करें जयकार ॥१६॥ मंगलीक बाजे बजें, वहुविधि श्रवण सुहाहि । नरनारी कौतुक निरख, हर्षे अंगन माहिं ॥२०॥ श्रादि देव दून्हा जहां, पायन इन्द्र महान । तिसे बरात महिमा कहन, समरथ कौन सुजान ॥२१॥
आगे आये लेन को, कच्छ सुकच्छ नरेश । विविध मेंट देके मिले, उर आनन्द विशेष ॥२२॥ रतन पौल पहुंचे ऋषभ, तोरण घंटा द्वार । रतन फूल वरखें घने, चित्र विचित्र अपार ॥२३॥ चौरी मंडप जगमगे, बहुविधि शोमे ऐन । चारों दिश चिलके परे, कंचन कलश अरु बैन ॥२४॥ मोती झालर झूमका, झलके हीरा होर । मानो मानन्द मेघ की, झरी लगी चहुओर ॥२५॥ वर कन्या बैंठे महां, देखत उपजे प्रीत । पिक बैनी मृग लोचनी, कामिन गावें गीत ॥२६॥ कन्यादान विधान विधि, और उचित आचार । यथायोग्य व्यवहार सब, कीनों कुल अनुसार ॥२७१ इह विधि विवध उछाह सोनोगापार कीनी सम्जन बीमती शोमा दिये श्रार ॥२८॥ हर्षित नाभि नरेश मन, हषित कच्छ सुकन्छ।
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