Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

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Page 66
________________ (५३) इहमांति अर्ध चढाय नित मवि करत शिव पंति मधु । भरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रन्थ नित पूजा रच ॥ वसुविधि अध संजोयके, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन । ओं ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यो अर्घ्यम् निवपामि स्वाहा । बीस महाराज का अर्घ्य । जल फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर भर थाल । नमू कर जोड, नित प्रति ध्याऊ भोरहि भोर ॥ पांचों मेरु विदेह सुथान, तीयकर जिन बीस महान । नमू कर जोड नित प्रति ध्याऊं भोरहि मोर ॥ __ओं ह्रीं विदेहक्षत्रस्य सीमादिविद्यमामविंशति तीर्थकरेभ्यो अध्यम् निर्वपामि स्वाहा । तीन लोकवर्ती चैत्यालयों का अर्घ्य । याति जिनचैत्यानि, विद्यन्ते भुवनत्रये । तावन्ति सततं भक्त्यां , त्रिः परीत्य नमाम्यहं ।। ओं ही त्रिलोक सम्बन्धि जिनेन्द्रषिम्बेभ्यो अय॑म् निर्वपामि स्वाहा सिद्ध परमेष्ठी का अर्घ्य । जल फल वसु वृन्दा अरथ अमंदा,जबत अनन्दा के कन्दा । मेटे मवफन्दा सर्वे दुःख दन्दा, हीराचन्दा तुम बन्दा ॥ उ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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