Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(४३)
परिशिष्ट
शाखाचार ।
पहिले वर पक्ष की तरफ से फिर कन्या पच की तरफ से ।
दोहा ।
वन्दों देव युगादि जिन, गुरु गणेश के पांय | सुमरूं देवी शारदा, ऋद्धि सिद्धि वरदाय ॥१॥ अब आदीश्वर कुमर को, सुनियो व्याह विधान । विधन विनाशन पाठ हैं, मंगल मूल महान ||२|| इस ही भारत क्षेत्र में, आज खंड मंकार | सुख सो बीते तीन युग, शेष सयय की वार ॥३॥ चौदह कुलकर अवतरे, अंतिम नाभि नरेश | सब भूपन में तिलक सम, कौशलपुर परवेश ॥ ४ ॥ मरुदेवी राणी प्रगट, शुभ लक्षण आधार । तिनके तीर्थंकर मये, प्रथम ऋषभ अवतार ॥५॥ स्वामि स्वयंभू परम गुरु, स्वयं बुद्ध भगवान । इन्द्र चन्द्र पूजत चरण, आदि पुरुष परिमान ॥ ६ ॥ तीन लोक ताश्म तरन, नाम विरद विख्यात ।
गुण अनन्त श्राधार प्रभु, जग नायक जगतात ॥७॥ जन्मत व्याह उछाह में, शुभ कारंज की यादि । पहिले पूज्य मनाइये, विनशे विधन विनाश ॥८॥
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