Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ (४४) सकल सिद्धि सुख संपदा, सब मनवांछित होय । तीनलोक तिहुंकाल में, और न मंगल कोय ।।६।। इस मंमल को भूलि के, कर और से प्रीति । ते अजान समझ नहीं, डत्तम कुल की रीति ॥१०॥ नाभि नरेश्वर एक दिन, कियो मनोरथ सार । आदि पुरुष परणाइये, बोले सुबुद्धि विचार ॥११॥ अहो कुमर तुम जगत गुरु, जगत्पूज्य गुणधाम । जन्प योग लोक सब, कहें हमें गुरु नाम ॥१२॥ तातें नहीं उलंघने मेरे बचन कुमार । ब्याह करो आशा मरो, चलै गृहस्थाचार ॥१३ ।। सुन के बचन सुतात के, मुसकाये जिन चन्द । तव नरेश जानी मही, राजी ऋषभ जिनंद ॥१४॥ बेटी कच्छ सुकच्छ की, नन्द सुनन्दी नाम । अगुण रूप गुण आगरी, मांगी बहु गुण धाम ॥१५॥ उभय पक्ष आनन्द भयो, सब जग बढ्यो उछाह । लग्न महूरत शुम घडी, रोप्यो ऋषभ विवाह ॥१६॥ खान पान सन्मान विधि, उचित दान प्रकाश । संतोषे पोषे खजन, योग्य वचन मुख भास ॥१७॥ गज तुरंग वाहन विविध, पनी बरात अनूप । रथ में राजत ऋषम जिन, संग बराती भूप ॥१८॥ नाचे देवी अपसरा, सन, रस पोर्षे, सार। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106