Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(४१)
त्वत्पादतामरसकोषनिवास्मास्ते । चिचद्विरेफसुकती मम यावदीन ।। बावच्च संसृतिजकिल्विषतापशापः । स्थानं मयि चणमपि प्रतियानि कश्चित् ॥४॥ त्वन्नाममंत्रमानशं रसनाप्रतियस्यास्ति मोहमदघूर्णन नाशनहेतु । प्रत्यूहराजिलगणोद्भवकालकूटमीतिहि तस्य किमुसंनिधिमेति देव ॥५॥ तस्मात्वमेव शरण तरणं भवान्धी, शांतिपदः सकलदोषनिवारणेन । जागर्ति शुद्धमनसा स्मरतोयतो मेशांतिः स्वयं करतले रमसाम्युपैति ॥६॥ जगति शांतिविवर्धनमंहसां, प्रलयमस्तु जिनस्तवनेन मे। सुकृतबुद्धिरलं धमयायुतो,
जिवषो हृदये मम वर्तताम् ॥७॥ इसके बाद निम्नलिखित मन्त्र व पद्य से विखजन करे।
ओं हां ही ह हौं हः असि आ उ सा महंवादिपरमेष्ठिनः स्व स्थानम् गच्छन्तु गच्छन्तुजः जः जः अपराध क्षमापणं भवतु । मोह ध्यांतविदारणं विशद विश्वदासि दीप्ति श्रियम् । सन्मार्ग प्रतिभासक विबुषसंदोहामृतापादकम् ।।
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