Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

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Page 31
________________ (१८) स्याद्वादवागमृत-सिंधुशशांक कोटि-- मर्चे जलादिमिरंगतगुणालयं तम् ॥१॥ ओं हीं श्री अनन्तचतुष्टयसमवशरणादिलक्ष्मीविभ्रतेऽहत्पर मेष्ठिने अयम् ! कमाष्टकेम चय मुत्पथ माशु हुत्वा। सध्यानवद्धिविसरे स्वयमात्मवन्तम् । निश्रेयसामृतसरस्यथ संनिनाय, तं सिद्धमुच्चपददं परिपूजयामि ॥ २॥ ओ ही श्री अष्टकर्मकाष्ठगणभ.मीकृतेसिद्धपरमेष्ठिनेऽध्यम् । स्वाचार-पंचकमपि स्वयमाचरंति, ह्याचारयन्ति भविका निजशुद्धि-माजः । तानर्चयामि विविधैः सलिलादिमिश्च, प्रत्यूहनाशनाविधौ निपुणान पवित्रैः ॥३॥ ओं ह्रीं श्री पंचाचारपरायणाय आचार्यपरमेष्ठिनेऽयम् । अंगांग-वाद्यपरिपाठन बालसानामष्टांगमानपरिशीलन-भवितानाम् । पादारविदयुगलं खलु पाठकानां, शुद्धजलादिवसुभिः परिपूजयामि ॥en ओं ह्रीं श्री द्वादशांगपठनपाठनोद्यताय उपाध्यायपरमेष्ठिनेऽव॑म् । आराधना सुखविनासमोरासम्बा, অবমানিক। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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