Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala

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Page 35
________________ (२३) धियं बुद्धिमनाकूल्य, धर्मप्रीति विवचनम् । गृहिधर्मे स्थिति भूत्वा, श्रेयस मे दिश त्वरा ॥ इत्याशीर्षादः। सिद्ध-पूजा। सिद्धान् विशुद्धावसुकम मुक्तान त्रैलोक्यशीस्थितचिद्विलासान् संस्थापये भावदिशुद्धिदातन् सन्मंगलं प्राज्यसमृद्धयेऽहम् ॥१॥ __ओं ह्री वसुकर्म रहित सिद्ध भ्यः पुष्पांजलि क्षिपामि। ओं ही नीरजसे नमः । ( बल द्वारा भूमि शुद्ध करे) नों ही दर्पमथनाय नमः । जलम् ॥ ओंबी शीलगंधाय नमः । चंदनम् ।। ओं ही अक्षताय नमः। अक्षतान् ॥ओं ही विमलाय नमः। पुष्पम् ॥ ओं ह्रीं परमासद्धाय नमः । नैषधम् ॥ ओं ही ज्ञानोद्योताय नमः । दीपम् ।। ओं ह्रीं श्रुतधूपाय नमः । धूपम् ।। ओं ही अभीष्टफलदाय नमः । फलम् ॥ अष्टकर्म गणनाशकारकान्, कष्टकुडलि मुदष्टगारुडान् । स्पष्टज्ञानपरिमीतविष्टपान, अध्यतोऽषनाशनाय पूजये ॥ ओं ह्रीं श्री वसुकर्म रहितेभ्यः सिद्धेभ्योऽय॑म् । द्वितीय कटनीस्थ श्रुत पूजा। द्वादशांगमाखले श्रुतं मया, स्थाप्य पाणिपरिपीडनोत्सवे । पूज्यते यदधिधर्मसंभवो, द्वैधयैष जमता प्रसीदति ॥१॥ बोंहीं श्री द्वादशांगाश्रुताय अय॑म् । तृतीय कटनीस्थ गुरु पूजा। शुद्धयो बरसादि-विक्रियापध्यमहकमहानसादिकाः ।। यत्कमाबुहबासमासते, तमान् गुरुनामिमहामिपखैः ॥२॥ भोजी श्री मरिधारकपरमर्षिभ्योऽयम । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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