Book Title: Jain Vivah Vidhi aur Vir Nirvanotsav Bahi Muhurt Paddhati
Author(s): Nathulal Jain
Publisher: Dhannalalji Ratanlal Kala
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(१३) कमाष्टर-विनिमुक्त-मोक्ष-लक्ष्मी निकेतनम् । सम्यक्त्वादि-गुणोपेतं, सिद्धचक्रं नमाम्यहम् ॥६॥ विघ्नाधाः प्रलय यान्ति, शाकिनी-भूतपनगाः । विष निर्विषतां याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ ७ ॥
(पुष्पांजलि क्षेपे) उदकचन्दनतन्दुल पुष्पक चरुमुदीप-सुधूप-फलाकः । धवलमंगलगान-वाकुले, जिनगृहे जिननाम, न्वहं यजे ॥ ओं ही श्री.मगवजिनसहस्रनामधेयोभ्योऽर्थ्यम् ।
देवशास्त्रगुरु पूजा का अर्थ जल परम उज्ज्वल गंध ऋचन, पुष्प चरु दीपक धरूँ । वर धूप निर्मल फल विविध बहु, जनम के पातक हुसै। इह मोति अर्थ चढ़ायनित भवि,करत शिव पैति मंचू ।
अरिहंस श्रुत सिद्धांत गुरु निग्रन्थं नित पूजा र ॥ दोहा-वसुविध अर्घ संजीयक, अति उचाई मन कोन ।
जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र पुरु तीन ॥ ओं ही देशांन गुरुभ्योऽनयपदप्राप्तये ऽयम् । -: श्री विद्यमानविंशतितीर्थंकरों का अर्थ :जल फल भौठो दर्व अरेघ कर प्रीति घरी ।।
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गणधर इन्द्रान हत, श्रुति पूरी न करी
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