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जैन तत्व मीमांसा की
व्यवहार से भेद रूप भी है अतः वस्तु भेदाभेद रूप होने से एक भेद के नाश में दूसरे भेद का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। इसलिये व्यवहार के लोप में परार्थ की सिद्धि चाहना स्वप्न मात्र हे असत्य है सातवें गुण स्थान तक व्यवहार का लोप नही होता वहां तक मविकल्प अवस्था है जहां तक सविकल्प अवस्था है तहा तक व्यवहार है हो । जहां पर'निजमाहि निजके हेत निजकरि आप को आपोगहयो। गुणगुणी ज्ञाताज्ञान ज्ञयमझार कुल भेद न रहयो" ॥
ऐमी अवस्था हो जाती है तहां पर निविकल्यध्यान है इसके पहिले मविकल्पध्यान है सो भा व्यवहार है इसलिये इसके पहिले ब्यवहार ही शरण है । देखो पंचाध्यायी"तस्मादाश्रयणीग: कांश्चित् स नयः प्रसंगत्वात् । अपि सविकल्पानामिन न अंयो निर्विकल्पबोधवतार" ६३६
अर्थात् प्रसंगवश किन्ही किन्ही को (श्रेणी के पूर्व वालों को) व्यवहारु नय भी आश्रयण य (आश्रय करने योग्य) है । वह सविकल्प बोधवालों के लिये ही प्राश्रय करना योग्य है। वह सवि. कल्पक बोध वालों के समान निर्विकल्पक बोध वालों के लिये वह व्यहार नय हितकारी नहीं है। अतः सविकल्पक बोध पूर्वक जो निर्विकल्पक बोध पा चुके हैं फिर उन्हें व्यवहार नय की शरण नहीं लेनी पड़ती है निश्चय नय की प्राप्ति के लिये ही व्यवहार नय का आश्रय लेना परमावश्यक है । तथा जहां शुद्धास्मानुभूति प्रगट हो जाती है यहां पर निश्चय नय का भी.
आलम्बन छूट जाता है। जब तक नयों की पक्षपातता है तब तक शुद्धात्मा की अनुभूति प्राप्त नहीं होती, जो समयसार
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