________________
प्राक्कथन
२३
तो यही मानना उचित है कि प्रत्येक द्रव्यमें जो उत्पाद-व्ययरूप कार्य होता है उसमें वह स्वाधीन है। ऐसा मानना परमार्थं सत्य और वस्तुस्वभावके अनुरूप है । इसमें किसी भी प्रकारकी 'ननु, न च' करना प्रत्येक द्रव्यके परिणामस्वभाव और उसके स्वतन्त्र व्यक्तित्वकी अवहेलना करना होगा जो उचित नहीं है, क्योकि इन तथ्योंकी अवहेलना करने पर छह द्रव्यों और उनके भेदोंकी पूरी व्यवस्था गड़बड़ा जायगी । फिर भी जैनदर्शन में प्रत्येक कार्य की उत्पत्तिमें निमित्तोंको स्वीकार किया गया है सो उसका कारण अन्य है ।
बात यह है कि प्रत्येक द्रव्यके अपने-अपने समर्थ उपादानके अनुसार प्रत्येक समय में कार्य होते समय अन्य द्रव्यकी पर्याय उसके बलाधान में स्वयं निमित्त होती है। बलका आधान कर कार्य को (अपने परिणमन स्वभाव और स्वतन्त्र व्यक्तित्वके कारण ) स्वय उपादान उत्पन्न करता है । यह कार्यं निमित्तका नही है । किन्तु कार्यको उत्पन्न करनेके लिए उपादान जो बलका आधान करता है उसमें अन्य द्रव्यकी पर्याय स्वय निमित्त हो जाती हैं यह वस्तुस्थिति है । इसके रहते हुए भी लोकमें निमित्त मुख्यतासे कुछ इस प्रकारके तर्क उपस्थित किये जाते है
१ उपादान हो और निमित्त न हो तो कार्य नही होगा ।
२ समर्थ उपादान हो और बाधक सामग्री आ जाय तो कार्य नहीं होगा ।
३. समर्थ उपादान हो, निमित्त हो पर बाधक कारण आ जाय तो कार्य नहीं होगा ।
ये तीन तर्क हैं । इन पर विचार करनेसे विदित होता है कि प्रथम दोनों तर्क तीसरे तर्कमें ही समाहित हो जाते हैं, अत. तीसरे तर्क पर समुचित विचार करनेसे शेष दो तर्कोंका उत्तर हो ही जायगा, अत तीसरे तर्कके आधारसे आगे विचार करते है
सर्वप्रथम विचार इस बातका करना है कि जब समर्थ उपादान और लोकमे निमित्त रहते हुए भी कार्यकी लोकमे कही जानेवाली बाधक सामग्री आ जाती है तब विवक्षित द्रव्य उसके कारण क्या अपने परिण मन स्वभावको छोड़ देता है ? यदि कहो कि द्रव्यमे परिणमन तो तब भी होता रहता है। वह तो उसका स्वभाव है । उसे वह कैसे छोड़ सकता है तो हम पूछते हैं कि जिसे आप बाधक सामग्री कहते हो वह किस कार्यकी बाधक मानकर कहते हो । भाप कहोगे कि जो कार्य हम उससे