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जैनहितैषी -
कारण वह दिगम्बरसम्प्रदाय के शिथिलाचारी भट्टारकों पर अच्छी तरह लागू होता है ।
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हम निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि पं० भागचन्द्रजी इस बातको जानते थे या नहीं कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर है । वे ओस वाल जातिके थे, इसलिए उनका श्वेताम्बर साहित्य से थोड़ा बहुत परिचय अवश्य रहा होगा । संभव है कि श्वेताम्बरसम्प्रदायका जानकर भी उन्होंने इस ग्रन्थको दिगम्बरसम्प्रदायके लिए उस समय बहुत उपयोगी समझा हो; क्योंकि उन दिनों भट्टारकोंके शिथिलाचार और अत्याचार बहुत बढ़े हुए थे और इस लिए इसे अपने सम्प्रदाय में प्रचलित करनेके लिए यह भाषाटीका कर दी हो । साथ ही इस बातकी सावधानी रखी हो कि कोई इसे श्वेताम्बर - सम्प्रदायका ग्रन्थ न समझे । वह समय ऐसा न था कि किसी सम्प्रदायका अच्छा ग्रन्थ भी दूसरे सम्प्रदाय में श्रद्धापूर्वक पढ़ा जाय और लोग उसके उपदेशपर चलने लगें । इसमें सन्देह नहीं कि उनका उद्देश्य अच्छा था; परन्तु यदि उन्होंने जानबूझकर श्वेताम्बर ग्रन्थको अपना बनाया है तो एक दृष्टिसे अनुचित कार्य किया है । यह भी संभव है कि उन्हें यह मालूम ही न हो और दिनम्बर सम्प्रदायका ग्रन्थ समझकर ही भाषाटीका की हो। दो चार स्थलोंपर जो अर्थकी खींचातानी की गई है उसको छोड़कर मूलग्रन्थके पाठमें जरा भी परिवर्तन नहीं किया गया है - सारी गाथायें ज्योंकी त्यों हैं, इससे इस पिछले अनुमानकी कुछ कुछ पुष्टि होती है ।
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