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जैनहितैषी
राजसूरिसे भिन्न एक दूसरे 'वादिराज' नामके कवि भी हुए हैं जिन्होंने ' वाग्भटालंकार' नामक ग्रंथपर 'कविचंद्रिका' नामकी संस्कृत टीका लिखी हैं। वादिराजसूरिका समय विक्रमकी ११ वीं शताब्दी है और यह टीका संवत् १७२९ में बनकर समाप्त हुई है । जैसा कि इसकी प्रशस्तिसे मालूम होता है:
" संवत्सरे निधिगश्वशशाङ्कयुक्ते, दीपोत्सवाख्यदिवसे सगुरौ सचित्रे। लग्नेलिनानि च समाप गिरः प्रसादात,
सद्वादिराजरचिता कविचंद्रिकेयम्" ॥१॥ ये वादिराज कवि खाण्डिल्यवंश (खण्डेलवाल) में उत्पन्न हुए पोमराज श्रेष्ठिके पुत्र थे और तक्षक नगरीके राजा राजसिंहके यहाँ किसी पदपर नियुक्त थे। उन्हींकी सेवामें अपना गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करते हुए कविने यह टीका लिखी है, ऐसा प्रशस्तिके शेष पद्योंसे जान पड़ता है । इस टीकामें कविने अपने आपको धनंजय, आशाधर और वाग्भटकी जोड़का विद्वान् बतलाया है । यथाः" धनंजयाशाधरवाग्भटानां धत्ते पदं सम्प्रति वादिराजः। खाण्डिल्यवंशोद्भवपोमसूनुर्जिनोक्तिपीयूषसुतृप्तचित्तः॥३॥"
(२९) चन्द्रकीर्ति और पार्श्वनाथपुराण । 'चंद्रकीर्ति । नामक एक भट्टारक हो गये हैं, जिन्होने विक्रमसंवत् १६५७ में ' पार्श्वनाथपुराण' की रचना की है । यह पुराण उन्होंने देवगिरि नामक मनोहरपुरके पार्श्वनाथ चैत्यालयमें बनाकर समाप्त किया है । यथाः
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