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समालोचनाकी आलोचना ।
समालोचनाकी आलोचना ।
( एक अर्थशास्त्रका प्रश्न | )
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कुछ दिन हुए धूलियानिवासी सेठ गुलाबचंदजीने मालवा प्रान्तिक सभाके अधिवेशन पर एक व्याख्यान दिया था । तत्पश्चात् शोलापुर निवासी सेठ हीराचंद नेमचन्दजीने 'जैनमित्र' में इस व्याख्या -. नकी समालोचना प्रकाशित की। समालोचना कैसी हुई इसका पता इस बात से लग सकता है कि इस समालोचनासे जैनसमाज में एक हलचल पैदा हो गई है । 'जैनतत्त्वप्रकाशक, ''सत्यबादी, ' जैनमित्र ' में अबतक इस समालोचनाकी अनेक आलोचनायें हो चुकी हैं और उनमें सेठ हीराचंद नेमचन्दजीकी कई बातों पर कटाक्ष किये गये हैं । वास्तवमें बात भी यही है कि सेठजीने अपनी समालोचनामें कई बातें ऐसी कह डाली और जैनसमाजपर एक ऐसा मिथ्या दोष लगाया कि इन सबके कारण जनसमाज में असंतोष फैले बिना न रहा । हमको भी सेठजीकी कई बातें बहुत खटकी हैं । उनमें से प्रायः सभी बातोंकी आलोचना हो चुकी है; परन्तु एक बात ऐसी है जिस पर अभी अधिक लिखनेकी गुंजाइश है। वह भारतवर्षकी दरिद्रताका प्रश्न है ।
सेठ गुलाबचंदजी ने अपने व्याख्यानमें कहा था कि " देशका सोना, चाँदी, मोती, माणिक, हीरा आदिके रूपमें अनन्त वैभव विदेशों में पहुँच गया और उसके बदल में हमें मिला लोहा, काँच,
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