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जैनहितैषी -
जिसका अभिप्राय यहाँ प्रकट किया जाता है । आशा है कि इससे दस्ताओंके धार्मिक अधिकार छीननेवाले बीसाओंका तथा हमारे परवार भाइयों का हृदय थोड़ा बहुत अवश्य पसीजेगा;
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मान्यवर पण्डितजी, आपका व्याख्यान सुनकर शान्ति मिली और आशा हुई कि आप हमारी प्रार्थनाको अवश्य सुनेंगे । " हम लोग बिनैकया ( दस्सा ) हैं। किसी समय हमारे पुरखाओंसे कोई अनाचार बन गया होगा जिसका फल हम लोग कई पीढ़ियोंसे भोग रहे हैं । पर उस पापका अन्त अब तक नहीं आया है, इस लिए हमारे परवार भाई हमें मंदिरजी में नहीं आने देते हैं और हम लोग पशुओंके समान बिना जिनदर्शन किये ही पेट भरते हैं । माना कि हमारे पुरखाओंने कोई अनाचार सेवन किया होगा; परन्तु क्या परवार भाइयोंमें सारे ही स्त्री पुरुष सीता और रामचन्द्रके तुल्य हैं ? हम लोग गरीब हैं, हमारी ओर कोई बोलनेवाला नहीं, नहीं तो हम पचासों स्त्रीपुरुषोंके दुश्चरित्र सुना दें; पर वे धनी हैं और मन्दिरपर उनका पट्टा लिखा हुआ है, इसलिए उन्हें कौन रोक सकता है ? क्या धर्मका न्याय यही है कि हम लोग ते अपने पुरखाओंके पापोंका प्रायश्चित्त भोगें और ये अपने ही अना चारोंका फल न भोगें ? अस्तु, हमें इनके कर्मोंसे कोई मत लब नहीं। हम न इनके साथ भोजन करनेको लालायित हैं और इनके साथ बेटीव्यवहार ही करना चाहते हैं । हम तो सिर्फ भगवान् के दर्शन और पूजनका अधिकार चाहते हैं । आप बड़े हैं पण्डित हैं, इन दोनों कामोंके करनेकी रोक टोक मिटवा दीजिए। “ आपकी दृष्टिमें हम पतित हैं, तो क्या कड़िया, लुहार, बढ़ई
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