Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 87
________________ विविध-प्रसका ७५५ माली, काछी, चितेरा आदि जातियोंसे भी गिरे हुए हैं जो श्रीजीकी वेदतिक जाते हैं ? ये लोग शूद्र हैं, पर हम लोग आपहीके खून हैं, एक ही पिताके सन्तान हैं और जब कि हम लोग अनाचार सेवन नहीं करते हैं तब उनसे अच्छे क्यों नहीं हैं जो निरन्तर व्यसनोंमें आसक्त रहकर भी मन्दिरोंमें आते जाते और जातिके अगुए कहलाते हैं ? इतने पर भी यदि हम पतित हैं तो क्या पतितोंका प्रायश्चित्त नहीं होता है ? क्या पतित पावन नहीं हो सकते हैं ? यदि नहीं तो भील, चोर, चाण्डालादि शुभगतिको कैसे प्राप्त हो गये ? ___" यदि सचमुच ही अब हम पावन या शुद्ध नहीं हो सकते हैं, तो लाचारी है। आप हमें मत मिलाइए, जिनदेवका दर्शन पूजन मत करने दीजिए, परन्तु कृपाकरके यह तो बतला दीजिए कि हम पीर पैगम्बर, क्राइस्ट, बुद्ध, विष्णु, चण्डी, भवानी आदि किसकी पूजा करें और किस धर्मके उपासक बन जायें, जिससे आपका नित्यका काँटा निकल जाय और हम कई हजार बिनैकयोंके निकल जानेसे आप लोग हलके हो जायें, आपके धर्मकी उन्नति हो जाय । _ " जब कुँअर दिग्विजयसिंहनी जैन हुए, तब सारा जैनसमाज आनन्दसे नृत्य करने लगा; परन्तु जब हमारे हज़ारों भाई जैनधर्मसे विमुख हो जायेंगे, तब शायद किसीके कानोंपर नँ भी न रेंगेगी। क्या उन्नतिकी उपासना इसीको कहते हैं कि एक नया जैन बनानेमें तो गजों ऊपर उछलें और हजारों जैनोंको अजैन बननेके सम्मुख देखकर एक आह भी मुँहसे न निकाले ? स्थितिकरण अंगका स्वरूप क्या यही है कि गिरते हुएको एक और जोरका धक्का लगा देना ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100