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समालोचनाकी आलोचना ।
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सोना-चांदीको निकाल कर बारह वर्ष ( सन् १८५८-१८६९) में ही प्रति मनुष्य ३० शिलिंग (२२॥ रुपया) का औसत पड़ता है, जब कि भारतवर्षमें ६९ वर्षमें १३३ आनेसे भी कमका औसत पड़ता है ! कहा जाता है कि भारतवासी धन जमा करते जाते हैं, परन्तु यह तो विचारिए कि जमा करनेके लिए प्रतिमनुष्य कितने रुपयेका औसत पड़ सकता है; उनको मिलता ही क्या है जिसमेंसे वे जमा करें। इसके साथ ही जरा यह भी देखिए कि इंग्लेंडवाले सोने चाँदीके बरतनों, जवाहिरातों, कीमती घड़ियों इत्यादिके रूपमें कितना जमा कर लेते हैं।........असली बात यह है कि जमा करना तो दूर रहा लाखों भारतवासी, जिनको भरपेट खाना भी नहीं मिलता, यह भी नहीं जानते कि गिरहमें एक रुपया होना कैसा होता है ।....यह विचार भी कि चांदीके आनेसे भारतवर्ष धनवान् हो गया है एक विचित्र भ्रम है ! इस भ्रमका कारण यह है कि मनुष्य एक जरूरी बातपर ध्यान नहीं देते, अर्थात् वे यह नहीं सोचते कि जो चाँदी भारतवर्षमें आती है वह उस फर्कको पूरा करनेके लिए नहीं आती जो यहाँसे बाहर जानेवाले माल और उसके मुनाफे, और विदेशोंसे आनेवाले मालमें होता है । चाँदी इस गरज़से यहाँ आती ही नहीं, यह बात हम ऊपर समझा चुके हैं। चाँदी इस देशमें इस लिए आती है कि यहाँ पर उसकी जरूरत है। इस लिए यह न समझना चाहिए कि चाँदीके आनेसे भारतवर्ष धनवान् होता जाता है। मान लो कि हम किसी मनुष्यको २०) का माल दे दें और उसके बदलेमें हमको ५) का
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