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पुस्तक-परिचय ।
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दक्षिण हैदराबाद । दाक्षिण हैदराबादसे ४५ मील ईशानकी ओर कुल्पाक नामका कस्वा है । वह सिकन्दराबादसे बिजबाड़ेको जानेवाली लाइनके आलेर नामक स्टेशनसे तीन मील दूर है। वहाँ पर एक विशाल मन्दिर है जिसमें ऋषभदेवकी ढाई हाथ ऊँची प्रतिमा है । इस प्रतिमाको माणिक्यस्वामी भी कहते हैं । इस प्रतिमाका बड़ा भारी माहात्म्य है और इस कारण श्वेताम्बर सम्प्रदायमें यह पूज्य तीर्थ माना जाता है। इसी तीर्थको श्वेताम्बर सिद्ध करनेके लिए और इसकी ख्याति बढ़ानेके लिए यह पुस्तक लिखी गई है। लेखक महाशयका कथन है कि इस तीर्थको शङ्करगण नामके राजाने विक्रम संवत् ६८० के लगभग स्थापित किया था। परन्तु इसके लिए उन्होंने जो ऐतिहासिक प्रमाण दिये हैं वे १४ वीं शताब्दिके बादके हैं । वहाँ पर लगभग १९ शिलालेख हैं जिनमें एक वि० सं० १३३३ का है जो पूरा नहीं पढ़ा जाता है और शेष सब १४५० के पछिके हैं। जिनप्रभसूरिके ' तीर्थकल्प ' नामक ग्रन्थमें इस तीर्थकी उत्पत्ति आदिका जो वर्णन दिया है वह भी विक्रमकी चौदहवीं शताब्दिका लिखा हुआ है । वह वर्णन बड़ा ही आश्चर्यजनक अतिरंजित और असंभव है । लिखा है कि “ भरतचक्रवर्तीने अयोध्या मरकतमणिकी एक ऋषभदेवकी प्रतिमा प्रतिष्ठित की, कुछ समयके बाद विद्याधर उसे वेताढ्य पर्वत पर ले आये, वहाँ उसे नारदजीने देखा और उसका संवाद देवाधिराज इन्द्रको दिया, तब इन्द्रने उसे अपने विमानमें मँगवा लिया । नमिनाथके समय तक वह वहीं देवों द्वारा पूजी गई । इसके बाद मन्दोदरीने उसकी
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