Book Title: Jain Hiteshi 1914 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 65
________________ पुस्तक- परिचय | ७३३ ऐसे भी हैं. जिनसे मालूम होता है कि स्वामीजीने जैनमतके प्रति द्वेष बढ़ानेकी पवित्र इच्छासे भी बहुतसी बातें लिखी हैं । एक जगह आप लिखते हैं कि “ पाखण्डोंका मूल ही जैनमत है । " और एक जगह कहा है “ सबसे वैर विरोध निंदा ईर्षा, आदि दुष्ट कर्मरूप सागर में डुबानेवाला जैनमार्ग है । " " अच्छे पुरुषको जैनियोंका संग करना वा उनको देखना भी बुरा है । " स्वामीजी जैनमतके इतने जबर्दस्त जानकार थे कि उसके स्याद्वाद या सप्तभंगी नयको बौद्धधर्ममें भी मान्य बतलाते हैं । स्याद्वादका अर्थ भी बड़ा ऊँटपटाँग किया है । हम आशा करते हैं कि इस पुस्तकको पढ़कर आर्यसमाजके वे सज्जन जो स्वामीजीको सर्वथा निर्भ्रान्त, परम विद्वान् और पूर्वकालके ऋषियोंसे भी बढ़कर महर्षि मानते हैं बहुत कुछ ठिकाने पर आ जावेंगे । अपने पक्षका मण्डन करनेके लिए दूसरे धर्मके सिद्धान्तोंका खण्डन करना सज्जनानुमोदित अवश्य है; परन्तु खण्डनका अर्थ यह नहीं है कि अपने पक्ष के अन्धाधुन्ध जोशमें आकर दूसरे धर्मको गालियाँ भी दे डालना और उसके सिद्धान्तोंको समझे बिना ही उसे बुरा भला कह डालना । स्वामीजीकी खण्डनशैली इस पुस्तकसे इसी प्रकार - की मालूम होती है । समाजी विद्वानोंको अपने गुरुकी इस शैलीका त्याग कर देना चाहिए । 1 आप्तपरीक्षाका भावानुवाद । लेखक, पं० उमरावसिंहजी जैन, अध्यापक स्याद्वादपाठशाला काशी । मू० पाँच आने । तत्त्वार्थसूत्रके ‘मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि श्लोकपर स्वामी विद्यानन्दने आप्त 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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